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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-१८
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    व॒यमि॑न्द्र त्वा॒यवो॒ऽभि प्र णो॑नुमो वृषन्। वि॒द्धि त्वस्य नो॑ वसो ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒यम् । इ॒न्द्र॒ । त्वा॒ऽयव॑: । अ॒भि । प्र । नो॒नु॒म॒: । वृ॒ष॒न् । वि॒द्धि । तु । अ॒स्य । न॒: । व॒सो॒ इति॑ ॥१८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयमिन्द्र त्वायवोऽभि प्र णोनुमो वृषन्। विद्धि त्वस्य नो वसो ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वयम् । इन्द्र । त्वाऽयव: । अभि । प्र । नोनुम: । वृषन् । विद्धि । तु । अस्य । न: । वसो इति ॥१८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (वृषन्) हे महाबली ! (इन्द्रः) इन्द्र [महाप्रतापी राजन्] (त्वायवः) तुझे चाहते हुए (वयम्) हम (अभि) सब ओर को (प्र) अच्छे प्रकार (नोनुमः) सराहते हैं। (वसो) हे बसानेवाले ! (नः) हमारे (अस्य) इस [कर्म] का (तु) शीघ्र (विद्धि) ज्ञान कर ॥४॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार प्रजागण धर्मात्मा राजा से प्रीति करें, वैसे ही राजा भी धार्मिक प्रजा को चाहे ॥४॥

    टिप्पणी

    मन्त्र ४-६ ऋग्वेद में हैं-७।३१।४-६ और मन्त्र ४ सामवेद में है-पू० २।४।८ ॥ ४−(वयम्) (इन्द्रः) (त्वायवः) मृगय्वादयश्च। उ० १।३७। युष्मत्+या प्रापणे-कुप्रत्ययः। यद्वा सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। युष्मत्-क्यच्, उप्रत्ययः। प्रत्ययोत्तरपदयोश्च। पा० ७।२।९८। मपर्यन्तस्य त्वादेशः। त्वदित्यत्र तलोपः, अकारदीर्घत्वं च छान्दसम्। त्वां प्राप्ताः। त्वां कामयमानाः (अभि) सर्वतः (प्र) प्रकर्षेण (नोनुमः) णु स्तुतौ-यङ्लुक्। भृशं स्तुमः (वृषन्) हे बलवन् (विद्धि) ज्ञानं कुरु (तु) शीघ्रम् (अस्य) कर्मणः (नः) अस्माकम् (वसो) हे वासयितः ॥

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    विषय

    अभि प्रणोनुमः

    पदार्थ

    १. हे (वृषन्) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले (इन्द्र) = प्रभो! (वयम्) = हम (त्वायव:) = आपको प्राप्त करने की कामनावाले होते हुए (अभि प्रणोनुम:) = आभिमुख्येन खुब ही स्तवन करते हैं। २. हे (वसो) = निवासक प्रभो! (न:) = हमारे (अस्य) = इस स्तोत्र को (विद्धी तु) = आप अवश्य जानिए ही। हम आपका स्तवन करें। यह स्तवन हमें आपका प्रिय बनाए। इस स्तवन से हम कुछ आपसे ही बन पाएँ।

    भावार्थ

    हम प्रभु का स्तवन करें। यह स्तवन हमें पवित्र जीवनवाला बनाता हुआ प्रभु का प्रिय बनाए।

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमेश्वर! (वयम्) हम उपासक (त्वायवः) केवल आपकी प्राप्ति के अभिलाषी हैं। (वृषन्) हे आनन्दरसवर्षी! (अभि) साक्षात् (प्र नोनुमः) हम आपकी उत्कृष्ट-स्तुतियाँ करते हैं। (वसो) हे सर्वत्र वसनेवाले! (अस्य) इस मेरी, और (नः) हम सबकी स्तुतियों को आप (विद्धि तु) जानिए।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surrender and Security

    Meaning

    Indra, generous and valorous lord ruler, giver of settlement, peace and progress, we are your admirers, and we stand for you. O lord, know this of us, for us and for the nation.

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    Translation

    O Almighty God, you pour the pleasure to all and you give abode to all. We desiring to attain you pay our respect to you. You know of this prayers of ours.

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    Translation

    O Almighty God, you pour the pleasure to all and you give abode to all. We desiring to attain you pay our respect to you. You know of this prayers of ours.

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    Translation

    O Adorable God, the showerer of peace and blessings we, the devotees, desirous of attaining Thee, bow to Thee alone. O Settlers of all, Thouknowest this action of devotion ofours.

    Footnote

    (4-6) cf. Rig, 7.31. (4-6),

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र ४-६ ऋग्वेद में हैं-७।३१।४-६ और मन्त्र ४ सामवेद में है-पू० २।४।८ ॥ ४−(वयम्) (इन्द्रः) (त्वायवः) मृगय्वादयश्च। उ० १।३७। युष्मत्+या प्रापणे-कुप्रत्ययः। यद्वा सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। युष्मत्-क्यच्, उप्रत्ययः। प्रत्ययोत्तरपदयोश्च। पा० ७।२।९८। मपर्यन्तस्य त्वादेशः। त्वदित्यत्र तलोपः, अकारदीर्घत्वं च छान्दसम्। त्वां प्राप्ताः। त्वां कामयमानाः (अभि) सर्वतः (प्र) प्रकर्षेण (नोनुमः) णु स्तुतौ-यङ्लुक्। भृशं स्तुमः (वृषन्) हे बलवन् (विद्धि) ज्ञानं कुरु (तु) शीघ्रम् (अस्य) कर्मणः (नः) अस्माकम् (वसो) हे वासयितः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বৃষন্) হে মহাবলশালী! (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহাপ্রতাপী রাজন্] (ত্বায়বঃ) তোমার কামনাকারী (বয়ম্) আমরা (অভি) সবদিক থেকে (প্র) উত্তমরূপে (নোনুমঃ) প্রশংসা করি। (বসো) হে পালনকারী! (নঃ) আমাদের (অস্য) এই [কর্ম] (তু) শীঘ্র (বিদ্ধি) জ্ঞান করো/জ্ঞাত হও।।৪।।

    भावार्थ

    যেরকম প্রজাগণ ধর্মাত্মা রাজার প্রতি প্রীতিভাব রাখে, রাজারও সেরকমই ধার্মিক প্রজাদের ভালোবাসবে।।৪।। মন্ত্র ৪-৬ ঋগ্বেদে আছে-৭।৩১।৪-৬ এবং মন্ত্র ৪ সামবেদে আছে-পূ০ ২।৪।৮ ॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (বয়ম্) আমরা উপাসক (ত্বায়বঃ) কেবল আপনার প্রাপ্তির অভিলাষী। (বৃষন্) হে আনন্দরসবর্ষী! (অভি) সাক্ষাৎ (প্র নোনুমঃ) আমরা আপনার উৎকৃষ্ট-স্তুতি করি। (বসো) হে সর্বত্র স্থিত! (অস্য) এই আমার, এবং (নঃ) আমাদের সকলের স্তুতি-সমূহ আপনি (বিদ্ধি তু) জানুন/জ্ঞাত হন।

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