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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 38/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-३८
    1

    इन्द्र॒ इद्धर्योः॒ सचा॒ संमि॑श्ल॒ आ व॑चो॒युजा॑। इन्द्रो॑ व॒ज्री हि॑र॒ण्ययः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । इत् । हर्यो॑: । सचा॑ । सम्ऽमि॑श्‍ल । आ । व॒च॒:ऽयुजा॑ ॥ इन्द्र॑: । व॒ज्री॒ । हि॒र॒ण्यय॑: ॥३८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र इद्धर्योः सचा संमिश्ल आ वचोयुजा। इन्द्रो वज्री हिरण्ययः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । इत् । हर्यो: । सचा । सम्ऽमिश्‍ल । आ । वच:ऽयुजा ॥ इन्द्र: । वज्री । हिरण्यय: ॥३८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 38; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (वज्री) वज्रधारी, (हिरण्ययः) तेजोमय (इन्द्र) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (इत्) ही (इन्द्रः) वायु [के समान] (सचा) नित्य मिले हुए (हर्योः) दोनों संयोग-वियोग गुणों का (संमिश्लः) यथावत् मिलानेवाला (आ) और (वचोयुजा) वचन का योग्य बनानेवाला है ॥॥

    भावार्थ

    जैसे पवन के आने-जाने से पदार्थों में चलने, फिरने, ठहरने का और जीभ में बोलने का सामर्थ्य होता है, वैसे ही दण्डदाता प्रतापी राजा के न्याय से सब लोगों में शुभ गुणों का संयोग और दोषों का वियोग होकर वाणी में सत्यता होती है ॥॥

    टिप्पणी

    −(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (इत्) सब (हर्योः) हृञ् स्वीकारप्रापणयोः-इन्। संयोगवियोगयोः (सचा) षच समवाये-क्विप्, विभक्तेराकारः। समवेतयोः (संमिश्लः) सम्+मिश्रयतेः-घञ्। कपिलादीनां संज्ञाछन्दसोर्वा०। वा० पा०८।२।१८। रेफस्य लत्वम्। सर्वतो मिश्रयिता (आ) चार्थे (वचोयुजा) युजिर् योगे-क्विन्, विभक्तेराकारः। वचसो वचनस्य योजयिता (इन्द्रः) वायुरिव (वज्री) वज्रधारी (हिरण्ययः) तेजोमयः ॥

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    विषय

    वज़ी हिरण्ययः

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (इत) = निश्चय से (हर्योः) = इन इन्द्रियाश्वों का (संमिश्ल:) = हमारे साथ मिलानेबाला है। ये ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप (अश्व सचा) = परस्पर मेलवाले होते हैं और (वचोयुजा) = शास्त्रवचनों के अनुसार कार्यों में प्रवृत्त होनेवाले होते हैं। ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियाँ मिलकर कार्य करती हैं और शास्त्रवचनों का उल्लंघन न करती हुई अपने कार्यों में प्रवृत्त होती हैं । २. (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (वज्री) = वज्रहस्त है-क्रियाशील है। क्रियाशीलता ही वस्तुत: इनका वन है। हिरण्यय:-ये ज्योतिर्मय हैं-ज्ञानज्योति से दीत है।

    भावार्थ

    प्रभु-प्रदत्त कर्मेन्द्रियों हमें वनी बनाएँ और ज्ञानेन्द्रियाँ हिरण्यय बनानेवाली हों।

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    भाषार्थ

    (इन्द्रः इत्) परमेश्वर ही (हर्योः) ऋग्वेद की स्तुतियों और सामगानों में, (आ) पूर्णतया और (सम्) सम्यकरूप में (सचा मिश्लः) समवाय सम्बन्ध से मिश्रित हुआ-हुआ है, चूंकि (वचोयुजा) ऋक् और साम का जोड़ा परमेश्वर का ही प्रवचन करता है। (इन्द्रः) परमेश्वर (वज्री) न्यायवज्रधारी है, (हिरण्ययः) हिरण्यसदृश बहुमूल्य सम्पत्तिवाला है, या सबका हित करनेवाला तथा रमणीयरूपवाला है। अथवा—(वचोयुजा) जब कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ, वैदिक वचनों के अनुसार योगयुक्त हो जाती हैं, योग की साधना अर्थात् प्रत्याहार से युक्त हो जाती हैं, तब (हर्योः) प्रत्याहार-सम्पन्न कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के (सचा) साथ, (इन्द्रः) परमेश्वर (आ संमिश्लः) मिश्रित हो जाता है। तब (इन्द्रः) परमेश्वर (वज्री) मानो वज्रधारी होकर उपासक के विघ्नों का हनन कर देता है, इस प्रकार उसके लिए (हिरण्ययः) हितकर और रमणीय हो जाता है।

    टिप्पणी

    [हर्योः=ऋकसामे वा इन्द्रस्य हरी (श০ ब्रा০ ४.४.३.६)। सचा=सच् समवाये। मानो ऋग्वेद की स्तुतियों और सामवेद के सामगानों के साथ परमेश्वर का समवाय सम्बन्ध है। इसके द्वारा यह सूचित किया है कि उपासना में चाहे किसी भी वैदिक दैवतनाम द्वारा स्तुति या सामगान किया जाए, वह स्तुति और सामगान परमेश्वर के सम्बन्ध में ही समझनी चाहिए। जैसे कि अथर्ववेद में कहा है कि—“यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति” (९.१०.१८) अर्थात् “ऋचाओं के साथ उसका कोई मतलब नहीं, जो कि ऋचाओं के वर्णनों में परमेश्वर को ओत-प्रोत हुआ नहीं जानता”। इसलिए उपासना में ऋक्-साम को परमेश्वर का प्रवचनकर्त्ता कहा है। साम और ऋचा का परस्पर सम्बन्ध ऐसा है, जैसा कि पति और पत्नी का। पति के विना पत्नी में पत्नीत्व नहीं, और पत्नी के बिना पति में पतित्व नहीं। इसी प्रकार गीति द्वारा की गई उपासना में ऋक् और साम का परस्पर सम्बन्ध है। गान विना ऋक् के सम्भव नहीं; और ऋक् की शोभा और प्राभाविकता गान पर निर्भर है। इसीलिए परमेश्वर के प्रवक्ता के रूप में ऋक् और साम का कथन किया है। वस्तुतः चारों वेद साक्षात् और परम्परया परमेश्वर के प्रवक्ता हैं। अथवा ऐसे स्थलों में ऋक् का अभिप्राय है छन्दः सामान्य, और साम का अभिप्राय है गीतिस्वर सामान्य। छन्दः और स्वर के परस्पर मेल से ही “गायन” का स्वरूप बनता है। इस दृष्टि से “वचोयुजा” का अर्थ होगा,। कि ये दोनों “वचन” अर्थात् “छन्द और स्वर” आपस में “युजौ” अर्थात् परस्पर सम्बद्ध हैं।] अथवा— [संमिश्लः=जैसे पानी में नमक डाला जाए तो नमक पानी में संमिश्रित होकर पानी को नमकीन बना देता है, इसी प्रकार जब परमेश्वर की कृपा हो जाती है तब इन्द्रियाँ परमेश्वरीय सत्ता द्वारा प्रेरित होने लगती हैं, और इन्द्रियों को अपने ऐन्द्रियिक-विषयों, सर्वत्र तत्सम्बद्ध परमेश्वरीय-सत्ता का भान होने लगता है। यह परमेश्वर का इन्द्रियों के साथ संमिश्रण है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    lndra Devata

    Meaning

    Indra, the omnipresent Spirit, Indra, the universal energy of vayu or maruts, and Indra, the solar energy, the bond of unity and sustenance in things, co¬ existent synthesis of equal and opposite complementarities of positive and negative, activiser of speech, lord of the thunderbolt and the golden light of the day and the year.

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    Translation

    The mighty ruler, brilliant with lustres holding fatal weapon is the coordinator of two men, the priest and minister who cooperate each other and are the spokesman.

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    Translation

    The mighty ruler, brilliant with lustres holding fatal weapon is the coordinator of two men, the priest and minister who cooperate each other and are the spokesman.

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    Translation

    Electricity is well-mixed up with Prana and Apana, the two horse powers, yoked to power of speech. Electric power has the striking power of a deadly weapon and is full of brilliance.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    −(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (इत्) सब (हर्योः) हृञ् स्वीकारप्रापणयोः-इन्। संयोगवियोगयोः (सचा) षच समवाये-क्विप्, विभक्तेराकारः। समवेतयोः (संमिश्लः) सम्+मिश्रयतेः-घञ्। कपिलादीनां संज्ञाछन्दसोर्वा०। वा० पा०८।२।१८। रेफस्य लत्वम्। सर्वतो मिश्रयिता (आ) चार्थे (वचोयुजा) युजिर् योगे-क्विन्, विभक्तेराकारः। वचसो वचनस्य योजयिता (इन्द्रः) वायुरिव (वज्री) वज्रधारी (हिरण्ययः) तेजोमयः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বজ্রী) বজ্রধারী, (হিরণ্যযঃ) তেজোময় (ইন্দ্র) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান রাজা] (ইৎ)(ইন্দ্রঃ) বায়ুর [ন্যায়] (সচা) নিত্য সমবেত (হর্যোঃ) উভয় সংযোগ-বিয়োগ গুণসমূহের (সংমিশ্লঃ) যথাযথ সংমিশ্রনকারী (আ) এবং (বচোয়ুজা) বচন যোগ্য করেন ॥৫॥

    भावार्थ

    যেমন বায়ুপ্রবাহের মাধ্যমে পদার্থের মধ্যে সঞ্চালন, স্থির থাকার এবং জিভে কথা বলার শক্তি হয়, তেমনই দণ্ডদাতা প্রতাপী রাজার ন্যায় দ্বারা সকল লোকেদের মধ্যে শুভগুণের সংযোগ ও দোষের বিয়োগ হয়ে বাণীতে সত্যতা হয় ॥৫॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্রঃ ইৎ) পরমেশ্বরই (হর্যোঃ) ঋগ্বেদের স্তুতি এবং সামগানের মধ্যে, (আ) পূর্ণরূপে এবং (সম্) সম্যকরূপে (সচা মিশ্লঃ) সমবায় সম্বন্ধ দ্বারা মিশ্রিত, কেননা (বচোয়ুজা) ঋক্ এবং সাম-এর সংযোগ পরমেশ্বরেরই প্রবচন করে। (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (বজ্রী) ন্যায়বজ্রধারী, (হিরণ্যযঃ) হিরণ্যসদৃশ বহুমূল্য সম্পত্তিসম্পন্ন, বা সকলের হিতকরী তথা রমণীয়রূপযুক্ত। অথবা— (বচোয়ুজা) যখন কর্মেন্দ্রিয় এবং জ্ঞানেন্দ্রিয়, বৈদিক বচন অনুসারে যোগযুক্ত হয়ে যায়, যোগ-এর সাধনা অর্থাৎ প্রত্যাহারযুক্ত হয়ে যায়, তখন (হর্যোঃ) প্রত্যাহার-সম্পন্ন কর্মেন্দ্রিয় এবং জ্ঞানেন্দ্রিয়ের (সচা) সাথে, (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (আ সংমিশ্লঃ) মিশ্রিত হয়ে যান। তখন (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (বজ্রী) মানো বজ্রধারী হয়ে উপাসকের বিঘ্ন-সমূহ হনন করেন, এইভাবে তাঁর [উপাসকের] জন্য (হিরণ্যযঃ) হিতকর এবং রমণীয় হন।

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