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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 52/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त-५२
    1

    स्वर॑न्ति त्वा सु॒ते नरो॒ वसो॑ निरे॒क उ॒क्थिनः॑। क॒दा सु॒तं तृ॑षा॒ण ओ॑क॒ आ ग॑म॒ इन्द्र॑ स्व॒ब्दीव॒ वंस॑गः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वर॑न्ति । त्वा॒ । सु॒ते । नर॑: । वसो॒ इति॑ । नि॒रे॒के । उ॒क्थिन॑: ॥ क॒दा । सु॒तम् । तृ॒षा॒ण: । ओक॑: । आ । ग॒म॒: । इन्द्र॑ । स्व॒ब्दीऽइ॑व । वंस॑ग: ॥५२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वरन्ति त्वा सुते नरो वसो निरेक उक्थिनः। कदा सुतं तृषाण ओक आ गम इन्द्र स्वब्दीव वंसगः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वरन्ति । त्वा । सुते । नर: । वसो इति । निरेके । उक्थिन: ॥ कदा । सुतम् । तृषाण: । ओक: । आ । गम: । इन्द्र । स्वब्दीऽइव । वंसग: ॥५२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 52; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (वसो) हे श्रेष्ठ ! [परमात्मन्] (उक्थिनः) कहने योग्य वचनोंवाले (नरः) नर [नेता लोग] (निरेके) निःशङ्क स्थान में (सुते) सार पदार्थ के निमित्त (त्वा) तुझको (स्वरन्ति) पुकारते हैं−(इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] (कदा) कब (तृषाणः) प्यासे [के समान] तू (सुतम्) पुत्र को (ओकः) घर में (आ गमः) प्राप्त होगा, (स्वब्दी इव) जैसे सुन्दर जल देनेवाला मेघ (वंसगः) सेवनीय पदार्थों का प्राप्त करानेवाला [होता है] ॥२॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य सार पदार्थ पाने के लिये परमात्मा की भक्ति निर्भय होकर करता है, परमात्मा उसको इस प्रकार चाहता है, जैसे प्यासा जल को, और जगदीश्वर इस प्रकार उसका उपकार करता है, जैसे सूखा के पीछे मेह आनन्द देता है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(स्वरन्ति) शब्दायन्ते। आह्वयन्ति (त्वा) त्वाम् (सुते) सारपदार्थनिमित्ते (नरः) मनुष्याः (वसो) हे श्रेष्ठ (निरेके) रेक शङ्कायाम्-अच्। निःशङ्कस्थाने (उक्थिनः) वक्तव्यवचनोपेताः (कदा) (सुतम्) पुत्रम् (तृषाणः) युधिबुधिदृशः किच्च। उ० २।९०। ञितृषा पिपासायाम्-आनच्, कित्। पिपासुरिव (ओकः) गृहम् (आ गमः) आगच्छेः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (स्वब्दी) सु+अप्+ददातेः-क, स्वब्द-इनि। सु शोभनानाम् अपां जलानां दानवान् मेघः (इव) यथा (वंसगः) अ० १८।३।३६। वन संभक्तौ-सप्रत्ययः+गमयतेर्डः। सेवनीयपदार्थानां प्रापयिता ॥

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    विषय

    स्वब्दीव वंसगः

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! (नरः) = उन्नति-पथ पर चलनेवाले लोग (सुते) = सोम का सम्पादन होने पर (स्वरन्ति) = आपका स्तवन करते हैं। आपका स्तवन ही वस्तुत: उन्हें सोमसम्पादन के योग्य बनाता है। हे (वसो) = उत्तम निवास देनेवाले प्रभो! ये नर (निरेके) = [रेक शंकायाम्] शंकाओं से शुन्य हृदय में-आपके प्रति पूर्ण श्रद्धायुक्त हदय के होने पर (उक्थिनः) = स्तोत्रोंवाले होते हैं-आनन्दपूर्वक आपके स्तोत्रों का उच्चारण करते हैं। २. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (कदा) = कब आप (तुषाण:) = चाहते हुए (सुतम्) = आपके पुत्रभूत मुझे (ओकः आगमः) = यहाँ घर में प्राप्त होंगे! आप (इव) = जैसे (स्वब्दी) = [सु+अप+द] उत्तम ज्ञान-जल को प्राप्त कराते हैं, उसी प्रकार (वंसग:) = मननीय (सेवनीय) = पदार्थों के प्राप्त करानेवाले हैं। ज्ञानपूर्वक इन पदार्थों का ठीक उपयोग करता हुआ ही तो मैं 'अभ्युदय व नि:श्रेयस' को सिद्ध कर पाता हूँ।

    भावार्थ

    हम प्रभु का ही स्तवन करें। श्रद्धायुक्त हृदय में प्रभु के गुणों का गायन करें। प्रभु-प्राप्ति की कामनावाले हों। प्रभु से ज्ञान व साधनभूत पदार्थों को प्राप्त करके उन्नति को सिद्ध करें।

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    भाषार्थ

    (वसो) हे विश्ववासी! (सुते) भक्तिरस के उत्पन्न हो जाने पर, और सांसारिक वृत्तियों की दृष्टि से (निरेके) चित्त के रिक्त हो जाने पर, शून्य हो जाने पर, (उक्थिनः) वैदिक-सूक्तों द्वारा स्तुतियाँ करनेवाले (नरः) उपासकनेता, (त्वा) आपके प्रति (स्वरन्ति) उच्च-स्वरों में स्तुतियाँ करते हैं, और कहते हैं कि “(इन्द्र) हे परमेश्वर! आप (सुतम्) उत्पन्न भक्तिरस के प्रति (तृषाणः) प्यासे होकर (कदा) कब (ओके) उपासक के हृदय-गृह में (आ गम) आएँगें, (इव) जैसे कि (वंसगः) सुन्दर गतिवाला बैल, पिपासाकुल हुआ-हुआ (स्वब्दी) सुन्दर जलाशय की ओर आता है।

    टिप्पणी

    [निरेके=नितरां रिक्त; वा एकान्तस्थाने। स्वब्दि+इव=सु+अप् (जल)+दा (देना)+इ, अर्थात् सुन्दर जल प्रदान करनेवाला जलाशय। स्वब्दि (नपुं सकलिङ्ग)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Indra, Vasu, giver of peace and security in self¬ settlement, while the soma of faith and love has been distilled in the heart and the devotees sing and celebrate your honour in hymns of praise, when would you, keen to join us at the celebration, come to the yajnic hall thirsting to meet the people you love and admire.

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    Translation

    O All- abiding God the men adoring you call you in a lovely place in this created world. When will you like thirsty one come to devotee (Sutam) in his home as the thundring cloud which gives things of enjoyment.

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    Translation

    O All-abiding God the men adoring you call you in a lovely place in this created world. When will you like thirsty one come to devotee (Sutam) in his home as the thundering cloud which gives things of enjoyment.

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    Translation

    O Shelterer of the world, certain learned persons specially sing Thy praises in this world, created by Thee. Just as a thirsty person approaches a source of water, when wilt Thou, O mighty Lord, bless us with Thy blessings like the cloud, pouring down pure water on the thirsty earth?

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(स्वरन्ति) शब्दायन्ते। आह्वयन्ति (त्वा) त्वाम् (सुते) सारपदार्थनिमित्ते (नरः) मनुष्याः (वसो) हे श्रेष्ठ (निरेके) रेक शङ्कायाम्-अच्। निःशङ्कस्थाने (उक्थिनः) वक्तव्यवचनोपेताः (कदा) (सुतम्) पुत्रम् (तृषाणः) युधिबुधिदृशः किच्च। उ० २।९०। ञितृषा पिपासायाम्-आनच्, कित्। पिपासुरिव (ओकः) गृहम् (आ गमः) आगच्छेः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (स्वब्दी) सु+अप्+ददातेः-क, स्वब्द-इनि। सु शोभनानाम् अपां जलानां दानवान् मेघः (इव) यथा (वंसगः) अ० १८।३।३६। वन संभक्तौ-सप्रत्ययः+गमयतेर्डः। सेवनीयपदार्थानां प्रापयिता ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমাত্মোপাসনোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বসো) হে শ্রেষ্ঠ ! [পরমাত্মন্] (উক্থিনঃ) কথনযোগ্য বচনযুক্ত (নরঃ) নর [নেতৃত্বপ্রদানকারী] (নিরেকে) নিঃসঙ্কোচ স্থানে (সুতে) উৎকৃষ্ট পদার্থের নিমিত্ত (ত্বা) আপনাকে (স্বরন্তি) আহ্বান করে−(ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [পরম ঐশ্বর্যবান পরমাত্মা] (কদা) কখন (তৃষাণঃ) তৃষ্ণার্তের [সমান] আপনি (সুতম্) পুত্রের (ওকঃ) গৃহে (আ গমঃ) আগমন করবেন/প্রাপ্ত হবেন, (স্বব্দী ইব) যেমন সুন্দর জল বর্ষণকারী মেঘ (বংসগঃ) উত্তম সেবনীয় পদার্থ প্রদানকারী [হয়] ॥২॥

    भावार्थ

    যখন মনুষ্য উৎকৃষ্ট পদার্থ প্রাপ্তির নিমিত্তে পরমাত্মার ভক্তি নির্ভয়ে করে, তখন পরমাত্মা সেই ভক্তকে এমনভাবে আকৃষ্ট করেন ঠিক যেমন তৃষ্ণার্ত জলকে আকৃষ্ট করে, এবং জগদীশ্বর ভক্তের উপকার এমনভাবে করেন, যেমন বৃষ্টিহীনতার পর মেঘ আনন্দ প্রদান করে।।২।।

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    भाषार्थ

    (বসো) হে বিশ্ববাসী! (সুতে) ভক্তিরস উৎপন্ন হলে, এবং সাংসারিক বৃত্তির থেকে (নিরেকে) চিত্ত রিক্ত হলে, শূন্য হলে, (উক্থিনঃ) বৈদিক-সূক্ত-সমূহ দ্বারা স্তবনকারী (নরঃ) উপাসকনেতা, (ত্বা) আপনার প্রতি (স্বরন্তি) উচ্চ-স্বরে স্তুতি করে, এবং বলে, “(ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! আপনি (সুতম্) উৎপন্ন ভক্তিরসের প্রতি (তৃষাণঃ) তৃষ্ণার্ত হয়ে (কদা) কখন (ওকে) উপাসকের হৃদয়-গৃহে (আ গম) আসবেন, (ইব) যেমন (বংসগঃ) সুন্দর গতিসম্পন্ন বলদ, পিপাসাকুল হয়ে (স্বব্দী) সুন্দর জলাশয়ের দিকে আসে।

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