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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 89 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 89/ मन्त्र 9
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-८९
    1

    उ॒त प्र॒हामति॑दीवा जयति कृ॒तमि॑व श्व॒घ्नी वि चि॑नोति का॒ले। यो दे॒वका॑मो॒ न धनं॑ रु॒णद्धि॒ समित्तं रा॒यः सृ॑जति स्व॒धाभिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । प्र॒ऽहाम् । अति॑ऽदीवा । ज॒य॒ति॒ । कृ॒तम्ऽइ॑व । श्व॒घ्नी । वि । चि॒नो॒ति॒ । का॒ले ॥ य: । दे॒वऽका॑म: । न । धन॑म् । रु॒णध्दि॑ । सम् । इत् । तम् । रा॒य: । सृ॒ज॒ति॒ । स्व॒धाभि॑: ॥८९.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत प्रहामतिदीवा जयति कृतमिव श्वघ्नी वि चिनोति काले। यो देवकामो न धनं रुणद्धि समित्तं रायः सृजति स्वधाभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । प्रऽहाम् । अतिऽदीवा । जयति । कृतम्ऽइव । श्वघ्नी । वि । चिनोति । काले ॥ य: । देवऽकाम: । न । धनम् । रुणध्दि । सम् । इत् । तम् । राय: । सृजति । स्वधाभि: ॥८९.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 89; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (उत) और (अतिदीवा) बड़ा व्यवहारकुशल पुरुष (प्रहाम्) उपद्रवी पुरुष को (जयति) जीत लेता है, (श्वघ्नी) धन नाश करनेवाला ज्वारी (काले) [हार के] समय पर (इव) ही (कृतम्) अपने काम का (वि चिनोति) विवेक करता है। (यः) जो (देवकामः) शुभ गुणों का चाहनेवाला (धनम्) धन को [शुभ काम में] (न) नहीं (रुणद्धि) रोकता है, (रायः) अनेक धन (तम्) उसको (इत्) ही (स्वधाभिः) आत्मधारण शक्तियों के साथ (सम् सृजति) मिलते हैं ॥९॥

    भावार्थ

    प्रतापी पुरुष दुष्ट को जीतकर उसे उसके दोष का निश्चय करा देता है, शुभ गुण चाहनेवाला उदारचित्त मनुष्य अनेक धन और आत्मबल पाता है ॥•९॥

    टिप्पणी

    मन्त्र ९, १० आ चुके हैं-अ० ७।०।६।७ •॥ ९−मन्त्रौ ९, १० व्याख्यातौ-अ० ७।०।६, ७ •॥

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    विषय

    देवकाम [न धना रुणद्धि]

    पदार्थ

    १. (अतिदीवा) = प्रभु की अतिशयेन स्तुति करनेवाला यह सोमरक्षक पुरुष (प्रहाम्) = प्रकर्षण बिनाश करनेवाली, 'मार' नामवाली इस कामवासना को (जयति) = जीत लेता है, २. (उत) = और (इव) = जैसे (श्वनी) = कल की चिन्ता न करनेवाला 'कितव' [जुआरी] (काले) = अवसर पर (कृतम्) = द्यूतोपार्जित सम्पूर्ण धन को (विचिनोति) = बखेर देता है, इसी प्रकार (यः) = जो (देवकाम:) = प्रभु-प्राप्ति की कामनावाला (धनम्) = धनों को न (रुणद्धि) = रोकता नहीं है, अपितु यज्ञों में विनियुक्त कर डालता है, (तम्) = उस देवकाम पुरुष को (स्वधावान्) = सम्पूर्ण [स्व] धनों को धारण करनेवाला प्रभु (राय:) = धन से (इत्) = निश्चयपूर्वक (संसृजति) = संसृष्ट करता है। देवकाम पुरुष को यज्ञादि की पूर्ति के लिए धनों की कमी नहीं रहती।

    भावार्थ

    हम प्रभु-स्तवन द्वारा काम को पराजित करें। उदारता से धनों का यज्ञों में विनियोग करें। प्रभु हमें सब आवश्यक धन प्राप्त कराएंगे।

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    भाषार्थ

    (उत) तथा (अतिदीवा) अत्यधिक-स्तुतियाँ करनेवाला उपासक, (प्रहाम्) दुःख-प्रहाण करनेवाले परमेश्वर पर (जयति) विजय पा लेता है, (इव) जैसे कि (श्वघ्नी) वृद्धि के लिए प्रगतिशील मनुष्य, (काले) यथोचित समय में, (कृतम्) नए कर्म-क्षेत्र को (वि चिनोति) निश्चय करके चुन लेता है, और (जयति) उस पर विजय पा लेता है। (देवकामः) परमेश्वरदेव की कामनावाला (यः) जो मनुष्य (धनम्) धन को (रुणद्धि न) रोके नहीं रखता, उसका संग्रह नहीं करता रहता, hoarding नहीं करता रहता, (तम् इत्) उसके साथ ही, परमेश्वर (स्वधाभिः) निज धारकपोषक शक्तियों द्वारा, (रायः) आध्यात्मिक विभूतियों तथा भूसम्पत्तियों का (सं सृजति) संसर्ग करता है।

    टिप्पणी

    [प्रहाम्=प्र+हा (ओहाक् त्यागे)+कर्तरि क्विप। अतिदीवा=अति+दिव् (स्तुतौ)+कनिन् (उणा০ कोष १.१५६)। “कृतमिव” इत्यादि=इतने भाग का अर्थ प्रायः जूए-सम्बन्धी किया जाता है। सूक्त में जूए का कोई प्रसङ्ग नहीं, इसलिए प्रसङ्गानुसार यहाँ अर्थ किया है। धनं रुणद्धि=धनलोलुप व्यक्ति आध्यात्मिक-धन प्राप्त नहीं कर सकता। श्वघ्नी=श्वयति वर्द्धते; तन्निमत्तं, हन्ति प्रगतिमान् भवति; श्वि=वृद्धौ+हन् (गतौ, प्रगतौ।)]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    A veteran winner, he counters an attack and wins the opponent just as an expert player or hunter rounds up his prey and chooses the right time to strike and win. He does not restrict or restrain the philanthropist who loves divinity and spends on yajnic projects, instead, master, protector and promoter of wealth and power as he is, he blesses the giver with more and more of wealth. A veteran winner, he counters an attack and wins the opponent just as an expert player or hunter rounds up his prey and chooses the right time to strike and win. He does not restrict or restrain the philanthropist who loves divinity and spends on yajnic projects, instead, master, protector and promoter of wealth and power as he is, he blesses the giver with more and more of wealth.

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    Translation

    At proper time he (the giver of Soma-preparation) wins advantage as a gambler piles his gains. The ruler gives riches blessed with corns to him who desirous of serving learned men and performing Yajnas does restrict his money.

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    Translation

    At proper time he (the giver of Soma-preparation) wins advantage as a gambler, piles his gains. The ruler gives riches blessed with corns to him who desirous of serving learned men and performing Yajnas does restrict his money.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र ९, १० आ चुके हैं-अ० ७।०।६।७ •॥ ९−मन्त्रौ ९, १० व्याख्यातौ-अ० ७।०।६, ७ •॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (উত) এবং (অতিদীবা) উত্তম ব্যবহারকুশল পুরুষ (প্রহাম্) উপদ্রবকারী পুরুষকে (জয়তি) জয় করে, (শ্বঘ্নী) ধন নাশকারী দ্যূতকর (কালে) [পরাজয়] সময়ে (ইব)(কৃতম্) নিজ কার্যের (বি চিনোতি) বিবেচনা করে। (যঃ) যে (দেবকামঃ) উত্তম গুণসমূহের কামনাকারী (ধনম্) ধনকে [শুভ কার্যে] ব্যবহারে (ন) না (রুণদ্ধি) রুদ্ধ করে, (রায়ঃ) বহু ধন (তম্) সে (ইৎ) অবশ্যই (স্বধাভিঃ) আত্মধারণ শক্তির সহিত (সম্ সৃজতি) প্রাপ্ত হয় ॥৯॥

    भावार्थ

    প্রতাপী পুরুষ দুষ্টকে জয় করে তাঁকে তাঁর দর্শন করায়, শুভ গুণ কামনাকারী উদারচিত্ত মনুষ্য অনেক ধন ও আত্মবল প্রাপ্ত করে ॥৯॥ মন্ত্র ৯, ১০ আছে-অ০ ৭।৫০।৬।৭ ॥

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    भाषार्थ

    (উত) তথা (অতিদীবা) অত্যধিক-স্তোতা উপাসক, (প্রহাম্) দুঃখ-হরণকারী পরমেশ্বরের ওপর (জয়তি) বিজয় প্রাপ্ত করে, (ইব) যেমন (শ্বঘ্নী) বৃদ্ধির জন্য প্রগতিশীল মনুষ্য, (কালে) যথোচিত সময়ে, (কৃতম্) নতুন কর্ম-ক্ষেত্র (বি চিনোতি) নিশ্চিতরূপে নির্বাচন করে, এবং (জয়তি) উহার ওপর বিজয় প্রাপ্ত করে। (দেবকামঃ) পরমেশ্বরদেবের অভিলাষী (যঃ) যে মনুষ্য (ধনম্) ধন (রুণদ্ধি ন) রোধ/অবরোধ করে রাখে না, উহার সংগ্রহ করে না, hoarding করে না, (তম্ ইৎ) তাঁর সাথেই, পরমেশ্বর (স্বধাভিঃ) নিজ ধারকপোষক শক্তির দ্বারা, (রায়ঃ) আধ্যাত্মিক বিভূতি তথা ভূসম্পত্তির (সং সৃজতি) সংসর্গ করেন।

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