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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 6
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अग्निः, इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
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    अ॒ग्निः प्रा॒णान्त्सं द॑धाति च॒न्द्रः प्रा॒णेन॒ संहि॑तः। व्यहं सर्वे॑ण पा॒प्मना॒ वि यक्ष्मे॑ण॒ समायु॑षा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नि: । प्रा॒णान् । सम् । द॒धा॒ति॒ । च॒न्द्र: । प्रा॒णेन॑ । सम्ऽहि॑त:। वि । अ॒हम् । सर्वे॑ण । पा॒प्मना॑ । वि । यक्ष्मे॑ण । सम् । आयु॑षा ॥३१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निः प्राणान्त्सं दधाति चन्द्रः प्राणेन संहितः। व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नि: । प्राणान् । सम् । दधाति । चन्द्र: । प्राणेन । सम्ऽहित:। वि । अहम् । सर्वेण । पाप्मना । वि । यक्ष्मेण । सम् । आयुषा ॥३१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु बढ़ाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्नि) अग्नि (प्राणान्) प्राणों, जीवनशक्तियों को (सम्=सम्भूय) मिलकर (दधाति) पुष्ट करता है, और (चन्द्रः) चन्द्र (प्राणेन) प्राण के साथ (संहित) सन्धिवाला है। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पाप कर्म से... [म० १] ॥६॥

    भावार्थ

    सूर्य का ताप श्वास-प्रश्वास द्वारा शरीर में प्रविष्ट होकर नेत्र आदि इन्द्रियों को अन्न रस पहुँचाता है, और चन्द्रमा की शीतलता प्राण द्वारा रुधिर आदि में परिणत रस से इन्द्रियों को पुष्ट करती है। ऐसे ही मनुष्य अपने दोष मिटाकर शुभ गुणों से युक्त होवें ॥६॥ मन्त्र १-५ में दोषों से (वि) वियोग के और मन्त्र ६-१० में पुरुषार्थ से (सम्) संयोग के वर्णन से आयु बढ़ाने का उपदेश है ॥

    टिप्पणी

    ६−(अग्निः) अशितपीतपरिणामहेतुर्जाठररूपः सूर्यतापः (प्राणान्) अ० २।१२।७। जीवनहेतून् श्वासप्रश्वासादीन्। चक्षुरादीन्द्रियाणि वा। (सं दधाति) संभूय पोषयति, स्वस्वकार्यसमर्थान् करोति। (चन्द्रः) अ० १।३।४। चदि आह्लादने-रक्। आह्लादकः। सोमः। चन्द्रमाः (प्राणेन) जीवनहेतुना सह (संहितः) सम्+धा-क्त। सन्धियुक्तः। संश्लिष्टः। अन्यद्गतम् ॥

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    विषय

    का जाठराग्नि तथा मन की ठीक स्थिति

    पदार्थ

    १. (अग्नि:) = भोजन के पाचन का हेतुभूत जाइराग्नि (प्राणान्) = चक्षु आदि इन्द्रियों को (संदधाति) = संश्लिष्ट, स्वस्थ व कार्यसमर्थ करता है। (चन्द्रः) = [चन्द्रमा मनो भूत्वा०] मन (प्राणेन संहित:) = प्राण के संयम से संहित [एकान] होता है। इसीप्रकार मैं पाप व रोग से पृथक् होकर उत्कृष्ट आयुष्य से संहित होऊँ। २. वस्तुत: जाठराग्नि का ठीक रहना और मन का न भटकना ही पापों व रोगों से पार्थक्य का साधन बनता है तथा उत्कृष्ट जीवन को प्राप्त कराता है।

    भावार्थ

    मैं जाठराग्नि को ठीक रखता हुआ सब इन्द्रियों को ठीक रक्खू तथा प्राण-साधना द्वारा मन को एकाग्र करनेवाला बनूं। इसप्रकार मैं निष्पाप, नीरोग व दीर्घजीवनवाला बनूं।

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    भाषार्थ

    (अग्निः) जाठराग्नि (प्राणान्) प्राणों को (सं दधाति) शरीर के साथ सम्बद्ध करती है, (चन्द्रः) चन्द्रमा (प्राणेन) प्राण के साथ (संहित:) सम्बद्ध है। (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पापों से (वि) वियुक्त हो जाऊँ, (यक्ष्मेण) यक्ष्मा रोग से (वि) वियुक्त हो जाऊँ और (आयुषा) स्वस्थ आयु से (सम्) सम्बद्ध हो जाऊँ।

    टिप्पणी

    [चन्द्र औषधियों में रसाधान करता है, औषधियों के सेवन से हमें प्राणशक्ति प्राप्त होती है। इस प्रकार चन्द्र का प्राणों के साथ सम्बन्ध है। मन्त्र के पूर्वार्ध में "वि" द्वारा "वियोग" न कहकर, "सम्" द्वारा सम्बन्ध अर्थात् संयोग कहा है। इससे "समायुषा" के भाव को परिपुष्ट किया है।]

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    विषय

    पाप से मुक्त होने का उपाय ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (अग्निः) अन्न का खाने वाला जाठर अग्नि (प्राणान्) शरीर के सब प्राणों का (सं दधाति) उत्तम रूप से पालन पोषण करता है और (चन्द्रः) चाद (प्राणेन संहितः) प्राणशक्ति के साथ सम्बद्ध है, अर्थात् जिस प्रकार चन्द्र प्राण-शक्ति का देने वाला है उसीप्रकार (अहं सर्वेण पाप्मना वि, यक्ष्मेण वि, आयुषा सं) सब पापों और रोगों से मुक्त रह कर आयु से सम्पन्न होऊं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। पाप्महा देवता। १-३, ६-११ अनुष्टुभः। ७ भुरिग। ५ विराङ् प्रस्तार पंक्तिः। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Negativity

    Meaning

    Agni, holds and sustains pranic energies for the system, so is the moon joined with the pranic energies. Let me be free from all sin, free from cancer and consumption, joined with good health and long age.

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    Translation

    The bio-fire makes the vital breaths capable of performing - their respective actions, and the moon is closely connected with the vital breath. I free this man from all evil and from wasting disease. I unite him with a long life.

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    Translation

    Agni, the heat combines vital breaths and the moon is closely joined with air, etc. etc. etc.

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    Translation

    Just as heat of the stomach digesting food nourishes all organs, just as the moon united with breaths strengthens the soul, so may I, being free from sins and pulmonary disease be yoked with old age.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(अग्निः) अशितपीतपरिणामहेतुर्जाठररूपः सूर्यतापः (प्राणान्) अ० २।१२।७। जीवनहेतून् श्वासप्रश्वासादीन्। चक्षुरादीन्द्रियाणि वा। (सं दधाति) संभूय पोषयति, स्वस्वकार्यसमर्थान् करोति। (चन्द्रः) अ० १।३।४। चदि आह्लादने-रक्। आह्लादकः। सोमः। चन्द्रमाः (प्राणेन) जीवनहेतुना सह (संहितः) सम्+धा-क्त। सन्धियुक्तः। संश्लिष्टः। अन्यद्गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (অগ্নিঃ) জাঠরাগ্নি (প্রাণান্) প্রাণ-সমূহকে (সং দধাতি) শরীরের সাথে সম্বদ্ধযুক্ত করে, (চন্দ্রঃ) চন্দ্র (প্রাণ) প্রাণের সাথে (সংহিতঃ) সম্বন্ধযুক্ত। (অহম্) আমি যেন (সর্বেণ পাপ্মান) সব পাপ থেকে (বি) বিযুক্ত হয়ে যাই, (যক্ষ্মা) যক্ষ্মা রোগ থেকে (বি) বিযুক্ত হয়ে যাই এবং (আয়ুষা) সুস্থ আয়ুর সাথে (সম্) সম্বদ্ধযুক্ত হয়ে যাই।

    टिप्पणी

    [চন্দ্র ঔষধির মধ্যে রসাধান করে, ঔষধির সেবনে আমরা প্রাণশক্তি প্রাপ্ত হই। এইভাবে চন্দ্রের প্রাণের সাথে সম্বন্ধ রয়েছে। মন্ত্রের পূর্বার্ধে "বি" দ্বারা "বিয়োগ" না বলে, "সম্" দ্বারা সম্বন্ধ অর্থাৎ সংযোগ বলা হয়েছে। ফলে "সমায়ুষা" এর ভাবকে পরিপুষ্ট হয়েছে।]

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    मन्त्र विषय

    আয়ুর্বর্ধনায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অগ্নি) অগ্নি (প্রাণান্) প্রাণ, জীবন শক্তিকে (সম্=সম্ভূয়) একসাথে (দধাতি) পুষ্ট করে, এবং (চন্দ্রঃ) চন্দ্র (প্রাণেন) প্রাণের সাথে (সংহিত) সন্ধিযুক্ত। (অহম্) আমি (সর্বেণ) সকল (পাপ্মনা) পাপ কর্ম থেকে (বি) আলাদা এবং (যক্ষ্মেণ) রাজরোগ, ক্ষয়ী ইত্যাদি থেকে (বি=বিবর্ত্তৈ) আলাদা থাকি এবং (আয়ুষা) জীবনে [উৎসাহের] সহিত যেন (সম্=সম্ বর্তে) মিলে থাকি/সঙ্গত থাকি॥৬॥

    भावार्थ

    সূর্যের তাপ শ্বাস প্রশ্বাস দ্বারা শরীরে প্রবিষ্ট হয়ে নেত্র আদি ইন্দ্রিয়সমূহকে অন্ন রস পৌঁছে দেয়, এবং চন্দ্রের শীতলতা প্রাণ দ্বারা রক্তে প্রণিত রস দ্বারা ইন্দ্রিয়-সমূহকে পুষ্ট করে। এভাবেই মনুষ্য নিজের দোষ দূর করে শুভ গুণ যুক্ত হোক॥৬॥ মন্ত্র ১-৫ এ দোষ থেকে (বি) বিয়োগের এবং মন্ত্র ৬-১০ এ পুরুষার্থের (সম্) সংযোগের বর্ণনার দ্বারা আয়ু বৃদ্ধির উপদেশ হয়েছে।

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