अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 28/ मन्त्र 5
ऋषिः - मृगारोऽअथर्वा वा
देवता - भवाशर्वौ रुद्रो वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
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ययो॑र्व॒धान्नाप॒पद्य॑ते॒ कश्च॒नान्तर्दे॒वेषू॒त मानु॑षेषु। याव॒स्येशा॑थे द्वि॒पदो॒ यौ चतु॑ष्पद॒स्तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठययो॑: । व॒धात् । न । अ॒प॒ऽपद्य॑ते । क: । च॒न । अ॒न्त: । दे॒वेषु॑ । उ॒त । मानु॑षेषु । यौ । अ॒स्य । ईशा॑थे॒ इति॑ । द्वि॒ऽपद॑: । यौ । चतु॑:ऽपद: । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
ययोर्वधान्नापपद्यते कश्चनान्तर्देवेषूत मानुषेषु। यावस्येशाथे द्विपदो यौ चतुष्पदस्तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठययो: । वधात् । न । अपऽपद्यते । क: । चन । अन्त: । देवेषु । उत । मानुषेषु । यौ । अस्य । ईशाथे इति । द्विऽपद: । यौ । चतु:ऽपद: । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२८.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(ययोः) जिन तुम दोनों के (वधात्) हनन सामर्थ्य से (देवेषु) प्रकाशमान सूर्य आदि लोकों (उत) और (मानुषेषु अन्तः) मनुष्यों के बीच (कश्चन) कोई भी (न) नहीं (अपपद्यते) छूटकर जाता है। (यौ) जो तुम दोनों (अस्य) इस (द्विपदः) दो पाये.... म० १ ॥५॥
भावार्थ
सर्वनियन्ता जगदीश्वर की आज्ञा पालन करके सब मनुष्य आनन्द प्राप्त करें ॥५॥
टिप्पणी
५−(ययोः) भवाशर्वयोः (वधात्) अ० १।२०।२। हननसामर्थ्यात् (न) निषेधे (अपपद्यते) अपेत्य गच्छति (कश्चन) कोऽपि (अन्तः) मध्ये (देवेषु) प्रकाशमानेषु सूर्यादिलोकेषु (उत) अपि च (मानुषेषु) अ० ४।१४।५। मनुष-अण्। मनुष्येषु। अन्यत् पूर्ववत् म० १ ॥
विषय
प्रभु का अप्रतिकार्य वध
पदार्थ
१. (ययो:) = जिन भव और शर्व के (वधात्) = हनन-साधन आयुध से (न देवेषु अन्त: कश्चन) = न तो सूर्य-चन्द्र, तारे आदि देवों में कोई (उत) = और न ही (मानुषेषु) = मनुष्यों में कोई (अपपद्यते) = भागकर जा सकता है, अर्थात् जब प्रभु प्रलय करते हैं तब कोई बच नहीं सकता। प्रभु सूर्य को समाप्त करेंगे तो सूर्य बच नहीं सकता। इसीप्रकार कोई मनुष्य भी प्रतिरोध करनेवाला नहीं होता। २. (यौ) = जो भव और शर्व (अस्य द्विपदः) = इस द्विपाद् जगत् के (ईशाथे) = ईश हैं, (यौ चतुष्पदः) = जो चतुष्पाद् जगत् के ईश है, (तौ) = वे (न:) = हमें (अंहसः) = पाप से (मुञ्चतम्) = मुक्त करें। प्रभु के रुद्ररूप का स्मरण हमें पाप-भीत करता ही है।
भाषार्थ
(ययोः) जिन दो के (वधात्) वध से (देवेषु अन्तः) देवों के मध्य में (उत) तथा (मानुषेषु) मनुष्यों के मध्य में (क: च) कोई भी (न) नहीं (अपपद्यते) अपगत होता (यौ) जो दो कि (अस्य द्विपदः) इस दो-पाये जगत् के, (यौ) जो दो कि (चतुष्पदः) चौ-पाये जगत् के (ईशाथे) तुम अधीश्वर हो, इनका शासन करते हो, (तौ) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पापों से (मुञ्चतम्) मुक्त करो, छुड़ाओ।
टिप्पणी
[अपपद्यते= अप+पद गतौ (दिवादिः), अपगत होना, छूटना। वधात्= पापकर्मों का दण्डरूप वध, मृत्यु। 'देव' का अभिप्राय है "विद्यादि गुणों से सम्पन्न", तथा 'मनुष्य' से अभिप्रेत है 'मनु के अपत्य' तथा केवल 'मननशील'। पशुओं में मनन नहीं होता। यह मनुष्यों तथा पशुओं में भेद है।]
विषय
पापमोचन की प्रार्थना।
भावार्थ
(ययोः) जिन दोनों की (वधात्) आघात शक्ति या मार से अर्थात् जन्म-मृत्यु, सृष्टि-संहार रूप वज्र से, (देवेषु) देवों, संसार की प्राकृतिक रचनाओं और (मानुषेषु) मनुष्यों में से (कः चन) कोई भी (न अप-पद्यते) नहीं बच पाता, जो (यौ अस्य ईशाथे) दोनों इस संसार पर वश करती हैं वे दोनों हमें पाप से मुक्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मृगार ऋषिः। षष्ठं मृगारसूक्तम्। नाना देवताः। १ द्वयतिजागतगर्भा भुरिक् २-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Sin
Meaning
Whose fatal strike no one can escape, whether among the brightest or among ordinary people, who govern and control the bipeds and the quadrupeds both, pray save us from sin and suffering in this world of life and death.
Translation
You two, from whose weapons of destruction no one, whether among men or even among the enlightened ones, can ever escape; who are the masters of all these bipeds and of the quadrupeds; may those both of you free us from sin.
Translation
These are the Bhava and Sharva from the stroke of weapon of which no one among wonderful worldly powers and men escapes and which control the quadrupads and bipeds of this world. May these two become the sources of our deliverance from grief and troubles.
Translation
Ye from the stroke of whose destroying weapon not one among the gods or men escapeth, lords of this world both quadruped and biped, deliver us, Ye twain, from sin.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(ययोः) भवाशर्वयोः (वधात्) अ० १।२०।२। हननसामर्थ्यात् (न) निषेधे (अपपद्यते) अपेत्य गच्छति (कश्चन) कोऽपि (अन्तः) मध्ये (देवेषु) प्रकाशमानेषु सूर्यादिलोकेषु (उत) अपि च (मानुषेषु) अ० ४।१४।५। मनुष-अण्। मनुष्येषु। अन्यत् पूर्ववत् म० १ ॥
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