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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रजापतिः देवता - अतिमृत्युः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - मृत्युसंतरण सूक्त
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    येनात॑रन्भूत॒कृतोऽति॑ मृ॒त्युं यम॒न्ववि॑न्द॒न्तप॑सा॒ श्रमे॑ण। यं प॒पाच॑ ब्र॒ह्मणे॒ ब्रह्म॒ पूर्वं॒ तेनौ॑द॒नेनाति॑ तराणि मृ॒त्युम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । अत॑रन् । भू॒त॒ऽकृत॑: । अति॑ । मृ॒त्युम् । यम् । अ॒नु॒ऽअवि॑न्दन् । तप॑सा । श्रमे॑ण । यम् । प॒पाच॑ । ब्र॒ह्मणे॑ । ब्रह्म॑ । पूर्व॑म् । तेन॑ । ओ॒द॒नेन॑ । अति॑ । त॒रा॒णि॒ । मृ॒त्युम् ॥३५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येनातरन्भूतकृतोऽति मृत्युं यमन्वविन्दन्तपसा श्रमेण। यं पपाच ब्रह्मणे ब्रह्म पूर्वं तेनौदनेनाति तराणि मृत्युम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । अतरन् । भूतऽकृत: । अति । मृत्युम् । यम् । अनुऽअविन्दन् । तपसा । श्रमेण । यम् । पपाच । ब्रह्मणे । ब्रह्म । पूर्वम् । तेन । ओदनेन । अति । तराणि । मृत्युम् ॥३५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 35; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (येन) जिस परमात्मा के साथ (भूतकृतः) प्राणियों को [उत्तम] बनानेवाले पुरुष (मृत्युम्) मृत्यु के कारण निरुत्साह आदि को (अति=अतीत्य) लाँघकर (अतरन्) तर गये हैं, और (यम्) जिसको (तपसा) ब्रह्मचर्य आदि तप और (श्रमेण) परिश्रम से (अन्वविन्दन्) उन्होंने अनुक्रम से पाया है। और (यम्) जिसको (ब्रह्मणे) ब्रह्मा, [वेदज्ञानी] के लिये (ब्रह्म) वेद ने (पूर्वम्) पहिले ही (पपाच) परिपक्व वा दृढ किया था। (तेन) उस (ओदनेन) बढ़ानेवाले वा अन्नरूप परमात्मा के साथ.... म० १ ॥२॥

    भावार्थ

    जिस परमात्मा को पाकर महाउपकारी जनों ने तप और परिश्रम से अनेक विघ्नों को हटाकर सुख प्राप्त किया है और जिसका प्रतिपादन वेदों ने किया है, उसी के ज्ञान से सब मनुष्य अपने क्लेश टालकर आनन्द पावें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(येन) ओदनेन (अतरन्) पारं प्राप्नुवन् (भूतकृतः) भूतानां प्राणिनां कर्तार उपकर्तारः पुरुषाः (अति) अतीत्य (मृत्युम्) मरणहेतुं निरत्साहादिकम् (यम्) (अन्वविन्दन्) अनुक्रमेण प्राप्नुवन् (तपसा) ब्रह्मचर्येण (श्रमेण) श्रमु तपसि खेदे च-घञ्। परिश्रमेण। ब्रह्माभ्यासेन। (यम्) (पपाच) पक्वं दृढं चकार (ब्रह्मणे) ब्रह्मज्ञानिने (ब्रह्म) वेदः (पूर्वम्) प्रथमम्। अन्यत् पूर्ववत् म० १ ॥

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    विषय

    तप और श्रम के द्वारा

    पदार्थ

    १. (येन) = जिस ज्ञान के द्वारा (भूतकृतः) = [भूत-right. proper, fit] ठीक कार्यों को करनेवाले ज्ञानी पुरुष (मृत्युम्) = मृत्यु को (अति अतरन्) = लाँघ गये, (यम्) = जिस ज्ञान को (तपसा) = तप के द्वारा तथा (श्रमेण) = श्रम से (अन्यविन्दन्) = क्रमशः प्राप्त करते हैं, अर्थात् तप और श्रम के द्वारा प्रास होनेवाले इस ज्ञान को प्राप्त करके उचित कार्यों को करनेवाले लोग मृत्यु को तैर जाते हैं। २. (यम्) = जिस ज्ञान को (पूर्वम्) = सर्वप्रथम (ब्रह्म) = परमात्मा ने (ब्रह्मणे) = ज्ञानवृद्धि के लिए (पपाच) = परिपक्व किया, (तेन ओदनेन) = उस ज्ञानभोजन से मैं भी (मृत्युम् अतितरािणि) = मृत्यु को तैर जाऊँ।

    भावार्थ

    तप और श्रम के द्वारा ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य उचित क्रियाओं को करता हुआ मृत्यु को तैर जाता है।

     

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    भाषार्थ

    (भूतकृतः) यथार्थकर्मा व्यक्ति (येन) जिस ओदन द्वारा (मृत्युम्) मृत्यु को (अति अतरन्) तैर जाते हैं, (यम्) जिस ओदन को (तपसा) तपश्चर्या द्वारा तथा (श्रमेण) परिश्रम द्वारा (अन्वविन्दन्) प्राप्त करते हैं; (पूर्वम्) अग्रजन्मा (ब्रह्म) ब्राह्मण (ब्रह्मणे) ब्रह्म की प्राप्ति के लिए (यम्) जिस ओदन को (पपाच) जीवन में परिपक्व करता है, (तेन ओदनेन) उस ओदन द्वारा (मृत्युम्) मृत्यु को (अति तराणि) मैं तैर जाऊँ।

    टिप्पणी

    [तैरने के कारण, मृत्यु है भवसागर।]

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    विषय

    प्रजापति की उपासना से मृत्यु को तरना।

    भावार्थ

    उसी ओदन रूप परमेश्वर को और स्पष्ट रूप से बतलाते हैं। (येन) जिसकी सहायता से (भूत-कृतः) यथार्थ कर्मों के अनुष्ठाता लोग (मृत्युं) मौत को (अति तरन्) पार कर जाते हैं। और (यम्) जिसको योगी लोग (तपसा) तप से ओर (श्रमेण) श्रम से (अनु अविन्दन्) उपलब्ध करते और उसका ज्ञान करते हैं। और जिस ओदनरूप परमेश्वर का (ब्रह्म) सबसे महान् होने से ‘ब्रह्म’ नाम है। (पूर्वम्) और जो अनादि है (ब्रह्मणे) वैदिक तत्व के परिज्ञान के लिये (पपाच) ब्रह्मचारी उसको अभ्यास अर्थात् परिपक्व करता है (तेन ओदनेन) उस ओदन रूप परमात्मा की सहायता से (मृत्युम् अति तराणि) मृत्यु को मैं पार करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्ऋषिः। मृत्योरेतिक्रमण देवताः। ३ भुरिक्। ४ जगती, १, २, ५-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Conquest of Death

    Meaning

    By that very sustaining spirit of the universe, life-forming powers of nature abide beyond death. By that very spirit, all-form-realised souls attain to immortality beyond form with relentless practice of meditation. By the same spiritual food of life, Vedic knowledge and meditation, which eternal Brahma prepared and perfected for us in the expansive universe, I too would conquer and outlive death and attain to immortality.

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    Translation

    With which the creators of beings swim across death; which they obtain with austerity and hard work; which in the olden times the intellectuals cooked for sake of knowledge; with that odana (cooked rice-mess) may I cross over death.

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    Translation

    I, the observer of celibacy conquer mortality or death with this Odana whereby the world-creating forces vanquish death, which learned men attain and maintain by austerity and preservance and which the Brahman, God prepares first to create the universe.

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    Translation

    Through Whose aid, the doers of noble deeds vanquished death, Whom the yogis realized through austerity, toil and trouble, Whom, the Most Exalted, the Beginningless, a Brahmchari firmly fixes in the heart through yogic exercise, may I through Him overcome death.

    Footnote

    Whose, ‘Whom’ ‘Him’ refer to God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(येन) ओदनेन (अतरन्) पारं प्राप्नुवन् (भूतकृतः) भूतानां प्राणिनां कर्तार उपकर्तारः पुरुषाः (अति) अतीत्य (मृत्युम्) मरणहेतुं निरत्साहादिकम् (यम्) (अन्वविन्दन्) अनुक्रमेण प्राप्नुवन् (तपसा) ब्रह्मचर्येण (श्रमेण) श्रमु तपसि खेदे च-घञ्। परिश्रमेण। ब्रह्माभ्यासेन। (यम्) (पपाच) पक्वं दृढं चकार (ब्रह्मणे) ब्रह्मज्ञानिने (ब्रह्म) वेदः (पूर्वम्) प्रथमम्। अन्यत् पूर्ववत् म० १ ॥

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