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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गरुत्मान् देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विषनाशन सूक्त
    1

    अ॑र॒सं प्रा॒च्यं॑ वि॒षम॑र॒सं यदु॑दी॒च्य॑म्। अथे॒दम॑धरा॒च्यं॑ कर॒म्भेण॒ वि क॑ल्पते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र॒सम् । प्रा॒च्य᳡म् । वि॒षम् । अ॒र॒सम् । यत् । उ॒दी॒च्य᳡म् । अथ॑ । इ॒दम् । अ॒ध॒रा॒च्य᳡म् । क॒र॒म्भेण॑ । वि । क॒ल्प॒ते॒ ॥७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अरसं प्राच्यं विषमरसं यदुदीच्यम्। अथेदमधराच्यं करम्भेण वि कल्पते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अरसम् । प्राच्यम् । विषम् । अरसम् । यत् । उदीच्यम् । अथ । इदम् । अधराच्यम् । करम्भेण । वि । कल्पते ॥७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विष नाश करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्राच्यम्) पूर्व वा सन्मुख दिशा का (विषम्) विष (अरसम्) अरस होवे, और (यत्) जो (उदीच्यम्) उत्तर वा बायीं दिशा में हैं [वह भी] (अरसम्) अरस होवे। (अथ) और (इदम्) यह (अधराच्यम्) नीचे की दिशा का [विष] (करम्भेण) जलसेचन से [वा दही मिले सत्तुओं से] (विकल्पते) असमर्थ हो जाता है ॥२॥

    भावार्थ

    चिकित्सक लोग विष और विषैले रोगों को यथावत् जलसेचन से अथवा सत्तुओं के प्रयोग से हटावें ॥२॥ (करम्भ) शब्द का अर्थ जलक्रिया वा जलसेचन का और दही सत्तुओं का है [करम्भो दधिसक्तवः-इत्यमरः, १९, ४८] ॥

    टिप्पणी

    २−(अरसम्) नीरसम्। निष्प्रभावम्, भवतु (प्राच्यम्)) द्युप्रागपागुदक्प्रतीचो यत्। पा० ४।२।१०१। इति प्राच्-यत्। पूर्वोद्भवम् (स्वाभिमुखदिशि भवम्) (यत्) यद् विषमस्ति तदपि (उदीच्यम्) उदच्-यत् पूर्ववत्। उत्तरदिशि भवम् वामदिशि भवम् (अथ) अनन्तरम् (इदम्) (अधराच्यम्) अधराच्-यत्। अधस्ताद् वर्तमानायां दिशि भवम्। (करम्भेण) अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्। पा० ३।३।१९। इति क+रभि शब्दे, अत्र सेके-घञ्। रभेरश्च लिटोः। पा० ७।१।६३। इति नुम्। केन जलेन रभ्यते सिच्यते मिश्रीक्रियते वा स करम्भः तेन, जलसेचनकर्मणा। यद्वा दधिमिश्रितशक्तुभिः (विकल्पते) कृपू सामर्थ्ये। कृपो रो लः। पा० ८।२।१८। इति लत्वम्। विगतसामर्थ्यं भवति ॥

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    विषय

    करम्भ

    पदार्थ

    १. (प्राच्यं विषम्) = शरीर के पूर्वभाग में होनेवाला विष (अरसम्) = निर्वीर्य होता है। (यत् उदीच्यम्) = जो उत्तरभाग में होनेवाला विष है, वह भी (अरसम्) = प्रभावशून्य होता है। २. (अथ) = और अब (इदम्) = यह (अधराच्यम्) = निचले भाग में होनेवाला विष (करम्भेण) = दधिमिश्रित सत्तुओं से [जौ के बने सत्तुओं से] (विकल्पते) = विगत सामर्थ्य होता है।

    भावार्थ

    दधिमिश्रित सत्तुओं के प्रयोग से सब विष-प्रभाव शून्य हो जाते हैं।

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    भाषार्थ

    (प्राच्यम् विषम्) पूर्व दिशा में उत्पन्न विष (अरसम्) नीरस हुआ है, (यत्) जो (उदीच्यम्) उत्तर दिशा का है वह (अरसम्) नीरस हुआ है, (अथ) तथा (इदम् अधराच्यम्) यह दक्षिण दिशा का जो है, वह (करम्भेण) करम्भ१ द्वारा (वि कल्पते२) सामर्थ्य से विहीन हुआ है।

    टिप्पणी

    [करम्भ द्वारा सर्वाधिक उत्पन्न विष को शक्तिहीन करने का निर्देश हुआ है। करम्भ=meal mixed with curd (आप्टे)। मन्थं संयुतं करम्भ इत्याचक्षते (आप० श्रौ० १२।४।१३)।] [१. करम्भः=करम्बम्=दधिसक्तव: (दशणाद्युणादिवृत्तिः ७।१७) अथबा करम्भः = क्रियते अम्भसा, जलेन इति = जलमिश्रित रक्त। २. विगतसामर्थ्यं भवति (सायण)।]

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    विषय

    विष चिकित्सा का उपदेश।

    भावार्थ

    (प्राच्यं विषम्) प्राची दिशा के देशों के जन्तु और ओषधियों के नाना प्रकार के विष और (यद् उदीच्यं) जो उत्तर दिशा के विष हैं वे भी (अरसं) निर्बल हो जाते हैं (अथ) और (इदम्) यह (अधराच्यम्) नीचे भूमि में सरकने वाले कीट पतंगों का विष भी (अरसं) निर्बल हो जाता है परन्तु यह सब (करम्भेण विकल्पते) उस विष को शान्त करने के लिये जो ओषधि का लेप और मश्रण और पान करने योग्य द्रव्य बनाया जाता है उसकी मात्रा और बलाबल के भेद से भिन्न २ बल का विष शान्त होता है ऐसा समझना उचित है। अथवा शरीर में आड़ा फैलने वाला विष जो उसी स्थान पर सूजन कर दे ‘प्राच्य’ है और ऊपर सिर की ओर फैलने वाला विष ‘उदीच्य’ और पैरों की ओर नीचे जाने जाने वाला विप ‘अधराज्य’ है। अथवा ‘प्राच्य’ बहुत तीव्र, ‘उदीच्य’ मध्यम ओर ‘अधराज्य’ न्यून बल है। अथवा वातोल्वण विष ‘प्राच्य’ और पित्तोल्वण ‘उदीच्य’ तथा कफोल्वण ‘अधराच्य’ है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गरुत्मान् ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १-३, ५-७ अनुष्टुभः, ४ स्वराट्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Antidote to Poison

    Meaning

    The poison caused by insects and other creatures of the eastern quarter, that caused by insects and other creatures of the northern quarter, and this which is caused by insects and other creatures here on or below the ground becomes ineffectual by the herbal mixture of Karambha and curds with oats.

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    Translation

    May the poison of the east become ineffective, ineffective be that of the north; also that which is of the nadir, may become ineffective by the use of Karmbha (a poisonous plant; or buttermilk).

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    Translation

    The poison caused by the creatures of the east side, becomes ineffectual, the poison caused by the creatures from the north side becomes ineffectual and the poison caused by the creatures from below becomes ineffectual. But all this result happens through the use of the preparations able to be smeared on or to be administered orally.

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    Translation

    May the poison of the East be weakened, may the poison of the North become weak, so this poison of the South is weakened through the use of flour mixed with curds.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(अरसम्) नीरसम्। निष्प्रभावम्, भवतु (प्राच्यम्)) द्युप्रागपागुदक्प्रतीचो यत्। पा० ४।२।१०१। इति प्राच्-यत्। पूर्वोद्भवम् (स्वाभिमुखदिशि भवम्) (यत्) यद् विषमस्ति तदपि (उदीच्यम्) उदच्-यत् पूर्ववत्। उत्तरदिशि भवम् वामदिशि भवम् (अथ) अनन्तरम् (इदम्) (अधराच्यम्) अधराच्-यत्। अधस्ताद् वर्तमानायां दिशि भवम्। (करम्भेण) अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्। पा० ३।३।१९। इति क+रभि शब्दे, अत्र सेके-घञ्। रभेरश्च लिटोः। पा० ७।१।६३। इति नुम्। केन जलेन रभ्यते सिच्यते मिश्रीक्रियते वा स करम्भः तेन, जलसेचनकर्मणा। यद्वा दधिमिश्रितशक्तुभिः (विकल्पते) कृपू सामर्थ्ये। कृपो रो लः। पा० ८।२।१८। इति लत्वम्। विगतसामर्थ्यं भवति ॥

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