अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 2
न कामे॑न॒ पुन॑र्मघो भवामि॒ सं च॑क्षे॒ कं पृश्नि॑मे॒तामुपा॑जे। केन॒ नु त्वम॑थर्व॒न्काव्ये॑न॒ केन॑ जा॒तेना॑सि जा॒तवे॑दाः ॥
स्वर सहित पद पाठन । कामे॑न । पुन॑:ऽमघ: । भ॒वा॒मि॒ । सम् । च॒क्षे॒ । कम् । पृश्नि॑म् । ए॒ताम् । उप॑ । अ॒जे॒ । केन॑ । नु । त्वम् । अ॒थ॒र्व॒न् । काव्ये॑न । केन॑ । जा॒तेन॑ । अ॒सि॒ । जा॒तऽवे॑दा: ॥११.२॥
स्वर रहित मन्त्र
न कामेन पुनर्मघो भवामि सं चक्षे कं पृश्निमेतामुपाजे। केन नु त्वमथर्वन्काव्येन केन जातेनासि जातवेदाः ॥
स्वर रहित पद पाठन । कामेन । पुन:ऽमघ: । भवामि । सम् । चक्षे । कम् । पृश्निम् । एताम् । उप । अजे । केन । नु । त्वम् । अथर्वन् । काव्येन । केन । जातेन । असि । जातऽवेदा: ॥११.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पदार्थ
(कामेन) शुभ कामना से (न) अब (पुनर्मघः) अवश्य धन देनेवाला मैं (भवामि) होता हूँ, [क्योंकि] (एताम्) इस (पृश्निम्) वेदविद्या को (कम्) सुख से (सम्) ठीक-ठीक (चक्षे) देखता हूँ और (उप) आदर से (अजे) प्राप्त करता हूँ। (अथर्वन्) हे निश्चल स्वभाववाले पुरुष ! (त्वम्) तू (नु) निश्चय करके (केन) कामना योग्य (काव्येन) स्तुतियोग्य (जातेन) प्रसिद्ध (केन) सुखप्रद प्रजापति परमेश्वर के साथ (जातवेदाः) बहुत धन वा बुद्धिवाला (असि) है ॥२॥
भावार्थ
योगी जन आदर से वेदविद्या प्राप्त करता, और उसके प्रचार से संसार को सुखी करके आप सुखी होता है ॥२॥
टिप्पणी
२−(न) सम्प्रत्यर्थे−निरु० ७।३१। (कामेन) शुभकामनया (पुनर्मघः) म० १। पुनर् अवधारणे। अवश्यं धनदाता (भवामि) (सम्) सम्यक् (चक्षे) चक्षिङ् दर्शने कथने च। पश्यामि (कम्) सुखेन (पृश्निम्) म० १। वेदविद्याम् (एताम्) सुप्रसिद्धाम् (उप) आदरेण (अजे) अज गतिक्षेपणयोः। अजामि। प्राप्नोमि (केन) अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। इति कमेः क्रमेर्वा−ड। यद्वा कं सुखम्−अर्शआद्यच्। कः कमनो वा क्रमणो वा−सुखो वा−निरु० १०।२२। कमनीयेन, व्यापकेन, सुखप्रदेन वा प्रजापतिना (नु) निश्चयेन (त्वम्) (अर्थवन्) अ० ४।१।७। हे निश्चलस्वभाव पुरुष (काव्येन) अ० ४।१।६। कवृ स्तुतौ−ण्यत्। स्तुत्येन ब्रह्मणा (केन) (जातेन) प्रसिद्धेन सह (असि) (जातवेदाः) जातधनः। जातप्रज्ञः ॥
विषय
जातवेदाः
पदार्थ
१. हे प्रभो! मैं यह (संचक्षे) = सम्यक् देखता हूँ कि (न कामेन) = न केवल कामना से मैं (पुन: मघः) = पुनः ऐश्वर्यवाला (भवामि) = होता हूँ। इसी से मैं (कम्) = सब सुखों को देनेवाले (एतां पृश्निम्) = इस वेदज्ञान को (उप अजे) = समीपता से प्राप्त होता है। आपकी उपासना करता हुआ इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए यत्नशील होता हूँ। २. हे (अथर्वन्) = [अथ अर्वाङ्] हम सबके अन्दर विचरनेवाले प्रभो! [अ-थर्व] डांवाडोल न होनेवाले एकरस प्रभो! (त्वम्) = आप (नु) = निश्चय से (केन केन) = किस-किस अथवा किस सुख को देनेवाले (जातेन काव्येन) = प्रादुर्भूत हुए-हुए वेदरूप काव्य से (जातवेदाः असि) = 'जातवेदा:' नामवाले होते हैं। वस्तुत: आपका यह वेदरूपी काव्य हमारे जीवनों के सुख के लिए सर्वमहान् साधन है।
भावार्थ
केवल चाहने से मनुष्य ऐश्वर्यशाली नहीं बनता। मनुष्य को चाहिए कि प्रभु का उनी उपासन करके वेदज्ञान प्राप्त करे। उसके अनुसार चलता हुआ जीवन में देखे कि प्रभु ने किस अद्भुत सुखदायी वेद-काव्य का प्रादुर्भाव किया है।
भाषार्थ
(कामेन) निजकामना द्वारा (पुनर्मघः) बार-बार सृष्टिधनवाला (न भवामि) मैं नहीं होता हूँ, अपितु (कम्) प्रजा के सुख को (सचक्षे) मैं देखता हूँ, इसलिए (एताम्, पृश्निम्) पृथिवी को (उपाजे) मैं प्राप्त होता हूँ। (अथर्वन् ) हे अथर्वा१! (त्वम्) तू ( नु) बितर्के, (केन काव्येन) किस काव्य द्वारा, तथा (केन जातेन) किसा उत्पन्न पदार्थ द्वारा ( जातवेदाः असि) जातवेदा [नामवाला ] हुआ है ।
टिप्पणी
[ संचक्षे=चष्टे पश्यतिकर्मा (निघं० ३।११) कम् सुखनाम (निघं० ३।६) । उपाजे= उप + अज ( गतौ) (भ्वादिः) गतेस्त्रयोsर्थाः, ज्ञानं गतिः प्राप्तिश्च । जातवेदा: पद में ज्ञान और प्राप्ति अर्थ अभिप्रेत है। जातवेदा:=जातप्रज्ञानः, तथा जातधनः (निरुक्त ७।५।१९ ) । जात +विद् ज्ञाने, जात+विद्लृ लाभे ] [१. अथर्वा है-निरुद्धचित्तवृत्तिक योगी । "थर्वतिश्चरतिकर्मा, ततप्रतिषेधः" (निरुक्त ११।२।१९)]
विषय
ईश्वर के साथ साथ राजा का वर्णन।
भावार्थ
पूर्व प्रश्न का उत्तर वरुण स्वयं देता है कि—(कामेन) केवल इच्छा मात्र से ही मैं (पुनर्मघः) बहुत धन सम्पत्ति वाला (न भवामि) नहीं हो जाता हूं। प्रत्युत (पृश्निम् सं चक्षे) इस पृश्नी, पृथिवी रूप गौ की मैं खूब देख भाल करता हूं और (एताम् उपाजे) इसके सदा समीप रह कर इसकी सेवा और पालन करता हूं। उत्तरार्ध भाग में विद्वान् वेदज्ञ से प्रश्न करते हैं कि—हे (अथर्वन्) विद्वन् ! अथर्वविद्या-ब्रह्म-विद्या के ज्ञाता ब्राह्मण ! (केन नु काव्येन) तू किस नु काव्य, विद्वान के बनाये, ज्ञानमय ग्रन्थ से और (केन जातेन) किस विधान से (जातवेदाः, असि) समस्त वेदों को जानने वाला और सब पदार्थों का ज्ञाता होगया है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। वरुणो देवता। १ भुरिक् अनुष्टुप्। ३ पंक्तिः। ६ पञ्चपदातिशक्वरी। ११ त्र्यवसाना षट्पदाऽष्टिः। २, ४, ५, ७-१० अनुष्टुभः। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Lord Supreme
Meaning
Varuna speaks to the seeker: “Not by mere desire do I become a constant giver. I wish, I watch, I care, I speak and inspire. I inspire and move this earth and heaven, and thus look after the peace and pleasure of life. O seeker, Atharvan, man of wisdom and stable mind, by which power, poetic self-revealing and inspiring in existence, do you grow to be a man of all knowledge? It is by the spirit and poetry of the spirit that is supreme and infinite, all comprehensive and protective, that you grow all knowing. Know that and you know all.
Translation
I do not become rich again due to desire (greed). To whom should I show ? I take this cow back for contemplation. O undisturbed one, by what poetry (fore-sight) and by what creation have you become knower of all beings ?
Translation
Replies Varuna, the Supreme being I am now benevolent through my desire (the nature). I see this earth with my blessedness and give it to the world People with pleasure. O Atharvan, man of firm learning! through which destines knowledge you attain the wise-man’s integrity, .
Translation
Not through desire alone have I become the lord of riches, I carefully look after this cow, the Earth, I always serve and rear her. O Brahman, the knower of divine knowledge, by what lore, by what inherent nature, knowest thou all things that exist!
Footnote
‘I’ refers to Varuna, the king. In the second half of the verse, the learned ask the Atharvan, the knower of divine knowledge, how he has become the knower of all things. Atharvan is not a proper Noun. One who knows the Atharvaveda is called an Atharvan.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(न) सम्प्रत्यर्थे−निरु० ७।३१। (कामेन) शुभकामनया (पुनर्मघः) म० १। पुनर् अवधारणे। अवश्यं धनदाता (भवामि) (सम्) सम्यक् (चक्षे) चक्षिङ् दर्शने कथने च। पश्यामि (कम्) सुखेन (पृश्निम्) म० १। वेदविद्याम् (एताम्) सुप्रसिद्धाम् (उप) आदरेण (अजे) अज गतिक्षेपणयोः। अजामि। प्राप्नोमि (केन) अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। इति कमेः क्रमेर्वा−ड। यद्वा कं सुखम्−अर्शआद्यच्। कः कमनो वा क्रमणो वा−सुखो वा−निरु० १०।२२। कमनीयेन, व्यापकेन, सुखप्रदेन वा प्रजापतिना (नु) निश्चयेन (त्वम्) (अर्थवन्) अ० ४।१।७। हे निश्चलस्वभाव पुरुष (काव्येन) अ० ४।१।६। कवृ स्तुतौ−ण्यत्। स्तुत्येन ब्रह्मणा (केन) (जातेन) प्रसिद्धेन सह (असि) (जातवेदाः) जातधनः। जातप्रज्ञः ॥
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