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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 11
    ऋषिः - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
    1

    गौरे॒व तान्ह॒न्यमा॑ना वैतह॒व्याँ अवा॑तिरत्। ये केस॑रप्राबन्धायाश्चर॒माजा॒मपे॑चिरन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गौ: । ए॒व । तान् । ह॒न्यमा॑ना । वै॒त॒ऽह॒व्यान् । अव॑ । अ॒ति॒र॒त् ।ये । केस॑रऽप्राबन्धाया: । च॒र॒म॒ऽअजा॑म् । अपे॑चिरन् ॥१८.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गौरेव तान्हन्यमाना वैतहव्याँ अवातिरत्। ये केसरप्राबन्धायाश्चरमाजामपेचिरन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गौ: । एव । तान् । हन्यमाना । वैतऽहव्यान् । अव । अतिरत् ।ये । केसरऽप्राबन्धाया: । चरमऽअजाम् । अपेचिरन् ॥१८.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (हन्यमाना) नाश की जाती हुई (गौः) वाणी ने (एव) अवश्य (तान्) उन (वैतहव्यान्) देवताओं के अन्न खानेवालों को (अवातिरत्) उतार दिया है। (ये) जिन्होंने (केसरप्राबन्धायाः) आत्मा में चलनेवाली अबन्ध शक्ति [परमेश्वर] की (चरमाजाम्) व्यापक विद्या को (अपेचिरन्) पचाया है [नष्ट कर दिया है] ॥११॥

    भावार्थ

    जो दुष्ट मनुष्य सर्वव्यापिनी वेदवाणी को नाश करना चाहते हैं, पण्डितों द्वारा वे मूर्ख नष्ट हो जाते हैं ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(गौः) वाणी (एव) अवश्यम् (तान्) (हव्यमाना) हिंस्यमाना नाश्यमाना (वैतहव्यान्) म० १०। वीतहव्यान् खादितदेवयोग्यान्नान् (अवातिरत्) पराभवत् (ये) (केसरप्राबन्धायाः) के+सृ गतौ−अच्+प्र+अबन्धायाः। के आत्मनि सरणशीलायाः प्रकर्षेण अबन्धायाः मुक्तस्वभावायाः शक्तेः परमेश्वरस्य (चरमाजाम्) चरम+अजाम्। चरेश्च। उ० ५।६९। इति चर गतौ−अमच्+अज गतिक्षेपणयोः−पचाद्यच्, गतिर्ज्ञानम्, वीभावाभावः। अजा अजनाः−तिरु० ४।२५। चरमां व्यापिकाम् अजां विद्याम् (अपेचिरन्) पच पाके लङि छान्दसं रूपम्। अपचन्। पाकेन तापेन नाशितवन्तः ॥

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    विषय

    केसरप्राबन्धा वाणी

    पदार्थ

    १. (गौः एव) = यह ब्राह्मण की ज्ञानरूप गौ ही (हन्यमाना) = मारी जाती हुई (तान् वैतहव्यान्) = उन कर-प्राप्त धनों को खा जानेवाले-अपने विलास में व्यय कर डालनेवाले राजाओं को (अवातिरत्) = मार डालती है। २. उन वैतहव्यों को यह वाणी नष्ट कर देती है, (ये) = जो (केसरप्रा-बन्धाया:) = [के+सर+प्र। अबन्धा] सुख-प्रसार के लिए बन्धनरहित, अर्थात् निश्चितरूप से सुख प्राप्त करानेवाली जानी ब्रह्मण की वाणी की (चरमाजाम्) = [चरमा अजा-गतिक्षेपणयोः] अन्तिम चेतावनी को भी (अपेचिरन्) = पचा डालते हैं-हजम कर जाते हैं, अर्थात् उसे भी नहीं सुनते।

    भावार्थ

    जो प्रजा से दिये गये कर को विलास में व्यय करनेवाले राजा हैं और ज्ञानियों से दी गई चेतावनी की परवाह नहीं करते, वे अन्तत: विनष्ट हो जाते हैं।

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    भाषार्थ

    (हन्यमाना) हृत हुई (गौः एव) परामर्शवाणी ने ही (तान् ) उन (वैतहव्यान्) अदनयोग्य अन्न से वञ्चित हुओं को (अवातिरत्) गद्दी से उतार दिया है, (ये) जिन्होंने कि (केसरप्राबन्धायाः) शिरोधार्य परामर्शवाणी की (चरमाजाम्) अन्तिम क्रियाशक्ति को (अपेचिरन् ) नष्ट कर दिया है।

    टिप्पणी

    [गौः वाङ्नाम (निघं० १।११)। वैतहव्यान् (मन्त्र १०)। केसर प्राबन्धायाः=के (सिर में)+ सर (विचरने) वाले मुकुट को+प्राबन्धायाः (बांधनेवाली परामर्शवाणी की। चरमाजाम्=चरम (अन्तिम) + अजाम् (अज गतौ, भ्वादिः) क्रियाशक्ति को। अपेचिरन्=विकृत कर दिया है। किसी वस्तु को जब अग्नि पर पकाया जाता है तब उसका वास्तविक स्वरूप नष्ट हो जाता है, विकृत हो जाता है।]

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    विषय

    ब्रह्मगवी का वर्णन।

    भावार्थ

    (तान् वैत- हव्यान्) उन दान योग्य पदार्थों के स्वयं भोक्ता, असुर लोगों को वह ब्राह्मण की गौ ही (हन्यमाना) मारी जा कर, (अव अतिरत्) विनाश कर डालती है क्योंकि (ये) जो वे, (केसर-प्राबन्धायाः) केसर-प्राबन्धा, मोक्षाभिलाषिणी चिति शक्ति की (चरम-अजाम्) अन्तिम अजा, अमर आत्मशक्ति को भी (अपेचिरन्) विनाश कर डालते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मयोभूर्ऋषिः। ब्रह्मगवी देवता। १-३, ६, ७, १०, १२, १४, १५ अनुष्टुभः। ४, ५, ८, ९, १३ त्रिष्टुभः। ४ भुरिक्। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Gavi

    Meaning

    The Brahmana’s Cow, when it is hurt, violated, suppressed and devoured, destroys those exploiters of yajnic materials who violate even the eternal vision and voice of the highest spirit and awareness present in the soul—which otherwise leads to the ultimate freedom of Moksha.

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    Translation

    The cow herself, while being slaughtered, destroyed those misappropriators of sacrificial offerings, who cooked even the last she-goat of kesarprabandha.

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    Translation

    The Cow, indeed, when is slain destroys those sacrilegious persons who devour the last she-goat bound in the rope of hair.

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    Translation

    The knowledge of a Vedic scholar, being destroyed, overthrows the wicked persons, who rob the sages of their foodstuffs and harm God's universal knowledge of the Vedas.

    Footnote

    Griffith considers Kesaraprabandha to be a woman. The word means God, Who resides in the soul and full of the joy of salvation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(गौः) वाणी (एव) अवश्यम् (तान्) (हव्यमाना) हिंस्यमाना नाश्यमाना (वैतहव्यान्) म० १०। वीतहव्यान् खादितदेवयोग्यान्नान् (अवातिरत्) पराभवत् (ये) (केसरप्राबन्धायाः) के+सृ गतौ−अच्+प्र+अबन्धायाः। के आत्मनि सरणशीलायाः प्रकर्षेण अबन्धायाः मुक्तस्वभावायाः शक्तेः परमेश्वरस्य (चरमाजाम्) चरम+अजाम्। चरेश्च। उ० ५।६९। इति चर गतौ−अमच्+अज गतिक्षेपणयोः−पचाद्यच्, गतिर्ज्ञानम्, वीभावाभावः। अजा अजनाः−तिरु० ४।२५। चरमां व्यापिकाम् अजां विद्याम् (अपेचिरन्) पच पाके लङि छान्दसं रूपम्। अपचन्। पाकेन तापेन नाशितवन्तः ॥

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