अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 14
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - तक्मनाशनः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - तक्मनाशन सूक्त
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ग॒न्धारि॑भ्यो॒ मूज॑व॒द्भ्योऽङ्गे॑भ्यो म॒गधे॑भ्यः। प्रै॒ष्यन् जन॑मिव शेव॒धिं त॒क्मानं॒ परि॑ दद्मसि ॥
स्वर सहित पद पाठग॒न्धारि॑भ्य: । मूज॑वत्ऽभ्य:। अङ्गे॑भ्य: । म॒गधे॑भ्य: । प्र॒ऽए॒ष्यन् । जन॑म्ऽइव । शे॒व॒ऽधिम् ।त॒क्मान॑म् । परि॑ । द॒द्म॒सि॒ ॥२२.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
गन्धारिभ्यो मूजवद्भ्योऽङ्गेभ्यो मगधेभ्यः। प्रैष्यन् जनमिव शेवधिं तक्मानं परि दद्मसि ॥
स्वर रहित पद पाठगन्धारिभ्य: । मूजवत्ऽभ्य:। अङ्गेभ्य: । मगधेभ्य: । प्रऽएष्यन् । जनम्ऽइव । शेवऽधिम् ।तक्मानम् । परि । दद्मसि ॥२२.१४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रोग नाश करने का उपदेश।
पदार्थ
(गन्धारिभ्यः) हिंसा पहुँचानेवाले, (मूजवद्भ्यः) मूँज आदि घासवाले, (अङ्गेभ्यः) अप्रधान और (मगधेभ्यः) दोष धारण करनेवाले देशों के लिये (जनम् इव) पामर पुरुष के समान, (शेवधिम्) सोने के आधार (तक्मानम्) दुःखित जीवन करनेवाले ज्वर को (प्रैष्यन्=प्रैष्यन्तः) आगे बढ़ते हुए (परि दद्मसि) हम त्यागते हैं ॥१४॥
भावार्थ
हिंसा आदि अशुद्ध व्यवहारों से ज्वर आदि रोग होते हैं। इस से मनुष्य शुद्ध व्यवहार रखकर सदा नीरोग रहें ॥१४॥
टिप्पणी
१४−(गन्धारिभ्यः) गन्ध−आरिभ्यः। गन्ध हिंसागतियाचनेषु−अच्। वसिवपियजि०। उ० ४।१२५। इति गन्ध+ऋ गतौ−इञ्। हिंसाप्रापकेभ्यः (मूजवद्भ्यः) म० ५। मुञ्जादितृणयुक्तेभ्यः (अङ्गेभ्यः) अङ्ग लक्षणे−अच्। अङ्गेति क्षिप्रनामाञ्चितमेवाङ्कितं भवति−निरु० ५।१७। अप्रधानेभ्यः (मगधेभ्यः) मगि सर्पणे−अच्। मगं दोषं दधातीति। आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। इति मग+धा−क। दोषधारकेभ्यो देशेभ्यः (प्रैष्यन्) प्र+इण् गतौ−लृटः शतृ, एकवचनं छान्दसम्। प्रैष्यन्तः। प्रगमिष्यन्तः (जनम्) पामरं पुरुषम् (इव) यथा (शेवधिम्) इण्शीभ्यां वन्। उ० १।१५२। इति शीङ् स्वप्ने−वन्। कर्मण्यधिकरणे च। पा० ३।३।५३। इति शेव+धाञ्−कि। शयनाधारम् (तक्मानम्) कृच्छ्रजीवनकरं ज्वरम् (परि दद्मसि) परि त्यजामः ॥
विषय
गन्धारिभ्यः, अङ्गेभ्यः, मगधेभ्यः
पदार्थ
१. (इव) = जैसे (जनम्) = किसी मनुष्य को (शेवधि प्रेष्यन्) = कोश [धन] भेजा जाता है, उसी प्रकार हम (तक्मानम्) = इस ज्वर को (गन्धारिभ्यः) = [गन्ध हिंसने] हिंसन की वृत्तिवाले पुरुषों के लिए (परि दझ्सि) = दे डालते हैं। इस ज्वर का धन इन हिंसकों के लिए ही ठीक है। २. इसप्रकार हम इस ज्वर-धन को (मूजवध्यः) = घास की अधिकतावाले स्थानों के लिए भेज देते हैं-इन स्थानों में रहनेवालों को ही यह धन प्राप्त हो। (अङ्गेभ्यः) = 'जिन्हें बहुत अधिक गति करनी पड़ती है [अगि गतौ] और परिणामतः श्रम की अति के कारण क्षीण हो जाते हैं उनके लिए हम इस ज्वर-धन को भेजते हैं, अन्तत: (मगधेभ्यः) = [मगं दोषं दधाति] दोषों को धारण करनेवाले मलिन-चरित्र पुरुषों के लिए हम इसे धारण करते हैं।
भावार्थ
ज्वर हिंसकों को, घास-प्रचुर स्थान में रहनेवालों को, अतिश्रम से थक जानेवालों को तथा दूषित जीवनवालों को प्राप्त होता है।
विशेष
ज्वर को समाप्त करने के लिए रोग-कृमियों का विनाश आवश्यक है। रोग-कृमियों के विनाश से ज्वर का विनाश स्वत: ही हो जाएगा, अतः अगले सूक्त का विषय कृमियों का विनाश है। इन कृमिरूप राक्षसों का विनाशक 'इन्द्र' है। बुद्धिमत्ता से काम करने के कारण यह 'कण्व' है-मेधावी। यही अगले सूक्त का ऋषि है।
भाषार्थ
(गन्धारिभ्यः) गन्ध प्राप्त प्रदेशों के लिए, (मूजवद्भ्य:) मूँज प्रधान प्रदेशों के लिए, (अङ्गेभ्यः) तदङ्गभूत अर्थात् समीपवर्ती प्रदेशों के लिए, ( मगधेभ्यः) परिवेष्टित प्रदेशों या निवासगृहों के लिए (तक्मानम्) तक्मा ज्वर को (परिदद्यसि) हम देते हैं, सौंपते हैं, (इव) जैसे [ कोई व्यक्ति] (जनम्) स्वजन के प्रति (शेवधिम्) धनराशि को (प्रैष्यन्) प्रेषित करता [हुआ होता] है।
टिप्पणी
[गन्धारिभ्यः= गन्ध+अर् (ऋ गतिप्रापणयोः, भ्वादिः)+ अ+इनिः। गन्ध का अभिप्राय है दुर्गन्ध। दुर्गन्धित प्रदेशों में तक्मा ज्वर होता है। मूँजवाले प्रदेश जल-प्रधान होते हैं। इन प्रदेशों में तथा तत्समीपस्थ प्रदेशों में भी मलेरिया होता है। मगधेभ्यः= मगध परिवेष्टने (कण्ड्वादिः) शेवधिः=खजाना, धनराशि।]
विषय
ज्वर का निदान और चिकित्सा।
भावार्थ
(जनम् प्र-एष्यम् इव) जिस प्रकार एक देश से दूसरे देश को आदमी भेज दिया जाता है या (शेवधिम्) खजाना जिस प्रकार एक के पास से दूसरे के पास पहुंच जाता है उसी प्रकार हम लोग (तक्मानं) इस ज्वर को (गन्धारिभ्यः) बदबू वालों के पास (मूजवद्भ्यः) निर्बल-शरीर वालों के पास (मगधेभ्यः) दोषयुक्त कुपथ्यकारियों के पास और (अंगेभ्यः) पराश्रय जीवन बिताने वाले दुर्बलों के पास (परि दद्मसि) दे दिया करते हैं। अर्थात् रोग उक्त प्रकार के लोगों में संक्रमित होजाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वङ्गिरसो ऋषयः। तक्मनाशनो देवता। १, २ त्रिष्टुभौ। (१ भुरिक्) ५ विराट् पथ्याबृहती। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Cure of Fever
Meaning
Whether fever comes and affects odorous people and spreads from them, or it affects weaker persons and spreads from them, or it affects persons of weak constitution and spreads from them, or it affects persons of ill-controlled habits and spreads from them, in any case we throw it out and eliminate it like infection brought in from another country and sent out like a foreigner, and thus we keep it away.
Translation
To those of Gandhar, to those of Moojvan, these of Angas, and to those of Magadha, we hereby send fever, as one sends a treasure to another person.
Translation
Like the man who accompanies the treasure brought to other place, we, the physicians send away the fever to the places-dirty, covered with Munja-grass, damp and having heavy rainfall.
Translation
Just as a person is sent from one country to another, or treasurer is transferred from one person to another, so we hand over Fever to the dirty, physically weak, in abstemious and servile persons.
Footnote
Fever attacks persons, who are dirty, physically weak, irregular in life, and dependent for their livelihood on their masters. Griffith considers Gandharis to be the inhabitants of Ghandara, a country to the west of the Indus and to the south of Kabul river. At present it is named Kandhara. Angas and Maghadas are mentioned by Griffith as tribes living in south Bihar and the country bordering it on the west. This explanation is unacceptable, as it says about history, from which the Vedas are free.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१४−(गन्धारिभ्यः) गन्ध−आरिभ्यः। गन्ध हिंसागतियाचनेषु−अच्। वसिवपियजि०। उ० ४।१२५। इति गन्ध+ऋ गतौ−इञ्। हिंसाप्रापकेभ्यः (मूजवद्भ्यः) म० ५। मुञ्जादितृणयुक्तेभ्यः (अङ्गेभ्यः) अङ्ग लक्षणे−अच्। अङ्गेति क्षिप्रनामाञ्चितमेवाङ्कितं भवति−निरु० ५।१७। अप्रधानेभ्यः (मगधेभ्यः) मगि सर्पणे−अच्। मगं दोषं दधातीति। आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। इति मग+धा−क। दोषधारकेभ्यो देशेभ्यः (प्रैष्यन्) प्र+इण् गतौ−लृटः शतृ, एकवचनं छान्दसम्। प्रैष्यन्तः। प्रगमिष्यन्तः (जनम्) पामरं पुरुषम् (इव) यथा (शेवधिम्) इण्शीभ्यां वन्। उ० १।१५२। इति शीङ् स्वप्ने−वन्। कर्मण्यधिकरणे च। पा० ३।३।५३। इति शेव+धाञ्−कि। शयनाधारम् (तक्मानम्) कृच्छ्रजीवनकरं ज्वरम् (परि दद्मसि) परि त्यजामः ॥
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