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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 117 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 117/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कौशिक देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आनृण्य सूक्त
    1

    अ॑नृ॒णा अ॒स्मिन्न॑नृ॒णाः पर॑स्मिन्तृ॒तीये॑ लो॒के अ॑नृ॒णाः स्या॑म। ये दे॑व॒यानाः॑ पितृ॒याणा॑श्च लो॒काः सर्वा॑न्प॒थो अ॑नृ॒णा आ क्षि॑येम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒नृ॒णा: । अ॒स्मिन् । अ॒नृ॒णा: । पर॑स्मिन् । तृ॒तीये॑ । लो॒के । अ॒नृ॒णा: । स्या॒म॒ । ये । दे॒व॒ऽयाना॑: । पि॒तृ॒ऽयाना॑: । च॒ । लो॒का: । सर्वा॑न् । प॒थ: । अ॒नृ॒णा: । आ । क्षि॒ये॒म॒ ॥११७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनृणा अस्मिन्ननृणाः परस्मिन्तृतीये लोके अनृणाः स्याम। ये देवयानाः पितृयाणाश्च लोकाः सर्वान्पथो अनृणा आ क्षियेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनृणा: । अस्मिन् । अनृणा: । परस्मिन् । तृतीये । लोके । अनृणा: । स्याम । ये । देवऽयाना: । पितृऽयाना: । च । लोका: । सर्वान् । पथ: । अनृणा: । आ । क्षियेम ॥११७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 117; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ऋण से छूटने का उपदेश।

    पदार्थ

    हम (अस्मिन् लोके) इस लोक [बालकपन] में (अनृणाः) अऋण, (परस्मिन्) दूसरे [युवापन] में (अनृणाः) अऋण और (तृतीये) तीसरे [बुढ़ापे] में (अनृणाः) अऋण (स्याम) होवें। (देवयानाः) विजय चाहनेवाले और व्यापारियों के यान अर्थात् विमान रथ आदि के चलने योग्य (च) और (पितृयाणाः) पालन करनेवाले विज्ञानियों के गमनयोग्य (ये) जो (लोकाः) लोक [स्थान] और (पथः=पन्थानः) मार्ग हैं, (सर्वान्) उन सब में (अनृणाः) हम अऋण होकर (आ) सब ओर से (क्षियेम) चलते रहें ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्या अभ्यास से बालकपन का ऋण, गृहस्थ आश्रम में धन और प्रजापालन आदि की सफलता से युवावस्था का ऋण, और वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के सेवन से बुढ़ापे का ऋण चुकाकर महात्माओं के समान धार्मिक होकर परोपकारी बनें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(अनृणाः) ऋणरहिताः (अस्मिन्) प्रथमे बाल्ये (परस्मिन्) द्वितीये यौवने (तृतीये) वार्द्धिके (लोके) लोकृ दर्शने, भाषायां, दीप्तौ च−घञ्। वयसि। समाजे (स्याम) भवेम (ये) (देवयानाः) अ० ३।१५।२। विजिगीषूणां व्यापारिणां विमानरथादीनां गमनयोग्याः (पितृयाणाः) पालकैर्विज्ञानिभिर्गमनीयाः (च) (लोकाः) धामानि। समाजाः (सर्वान्) लोकान् पथश्च (पथः) प्रथमायां द्वितीया। पन्थानः। मार्गाः (आसमन्तात्) (क्षियेम) क्षि निवासगत्योः। गच्छेम ॥

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    विषय

    तीनों लोकों में अनृण अनृणा

    पदार्थ

    १. हम (अस्मिन्) = इस ब्रह्मचर्याश्रम में ब्रह्मचर्यपूर्वक स्वाध्याय में तत्पर होते हुए (अनृणा:) = ऋषिऋण से अनुण हों। इसके पश्चात् अगले (परस्मिन्) = उत्कृष्ट गृहस्थाश्रम में सन्तानों का उत्तमता से पालन करते हुए (अनृणा:) = पितृऋण से अनृण होने के लिए यत्नशील हों, फिर तृतीये लोके वानप्रस्थरूप तृतीय स्थान में भी (अनृणाः स्याम) यज्ञादि उत्तम कर्म करते हुए देवत्रण से मुक्त हों। २. (ये देवयाना:) = जो देवों के मार्ग हैं (च) = और जो (पितयाणा: लोका:) = पितयाण लोक हैं जिन मार्गों से रक्षणात्मक कर्मों में प्रवृत्त लोग चलते हैं, उन (सर्वान्) = सब (पथ:) = मागों को (अनृणा: आक्षियेम) = हम ऋणरहित होकर ही आक्रान्त करें।

    भावार्थ

    हम सर्वप्रथम ब्रह्मचर्याश्रम में ऋषिऋण से अनृण होने के लिए यत्नशील हों। गृहस्थ में सन्तान-पालन द्वारा पितृऋण को चुकाएँ और वानप्रस्थ में यज्ञों के द्वारा देवऋण को उतार दें। अब अनृण होकर 'देवयान व पितृयाण' मार्गों का आक्रमण करें।

     

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    भाषार्थ

    (अनृणाः) ऋण रहित हों (अस्मिन् लोके) इस ब्रह्मचर्य लोक में, आश्रम में, (अनृणा:) ऋणरहित हों, (परस्मिन्) परले लोक में, गृहस्थाश्रम में। (तृतीये) तीसरे लोक में, वानप्रस्थाश्रम में (अनृणाः) ऋण रहित (स्याम) हम हों। (ये) जो (देवयाना: पितृयाणा: च लोकाः) जो देवयान और पितृयान लोक हैं (सर्वान् पथः) इन सब पथों में (अनृणा) ऋण रहित हुए (आ क्षियेम) अगले-अगले आश्रम में आ कर हम वास करें।

    टिप्पणी

    [अभिप्राय यह है कि किसी भी आश्रम में हम किसी से ऋण ग्रहण न करें। पितृयाण-पथ है गृहस्थाश्रम, शेष आश्रम हैं देवयानपथ। अनृणा:= दो प्रकार के ऋण होते हैं लौकिक और वैदिक। लौकिक ऋण है धान्यादि का या नकद रुपयों का। वेदिक ऋण तीन हैं ऋषिऋण, देव ऋण तथा पितृ ऋण। मनुष्य के जन्म लेते ही वह इन तीन ऋणों का ऋणी हो जाता है। यथा “जायमानो वै ब्राह्मणः त्रिभिर्ऋणवान् जायते। ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यः यज्ञेन देवेभ्यः, प्रजया पितृभ्यः" (तै० ६/३/१०।५)।]

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    विषय

    ऋण रहित होने का उपदेश।

    भावार्थ

    लौकिक और पार्थिव दोनों ऋणों की विवेचना करते हैं— हम लोग (अस्मिन्) इस (लोके) लोक में और (परस्मिन्) परलोक में और (तृतीये लोके) तृतीय लोक में भी (अनृणाः) ऋण रहित (स्याम) हो जाएं। (ये देव-यानाः) जो देवों, विद्वानों के जीवनयापन के योग्य देवयान लोक हैं और जो (पितृयाणाः च लोकाः) पितृयाण लोक हैं (सर्वान्) उन समस्त (पथः) मागों में हम (अनृणाः) ऋण रहित होकर ही (आ क्षियेम) रहा करें। इस लोक के दो प्रकार के ऋण हैं एक तो जो अधमर्ण होकर उत्तमर्णों से सुवर्ण रजत, धान्य वस्त्रादि लिया जाता है, दूसरा पितृऋण, देवऋण और ऋषिऋण हैं।

    टिप्पणी

    जैसे तैत्तिरीय संहिता में लिखा है “जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिऋणैर्ऋणवान् जायते, ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो यज्ञेन देवेभ्यः, प्रजया पितृभ्यः॥ तै० सं० ६। ३। १०। ५]। ऋणं ह वै जायते, योऽस्ति स जायमान एव देवेभ्यः ऋषिभ्यः पितृभ्यो मनुष्येभ्यः। स यदेव यजते तेन देवेभ्य ऋणं जायते, तद्वयेभ्यः एतत्करोति यदेनान् यजते यदेभ्यो जुहोति। अथ यदेवानुब्रवीत तेन ऋषिभ्य ऋणं जायते तद्धयेभ्य एतत्करोति ऋषीणान्निधिगोपा इति ह्मनूचानमाहुः। अथ यदेव प्रज्ञामिच्छेत तेन पितृभ्य ऋणमिच्छते तद्वयेभ्य एतत्करोति यदेषां सन्तताऽव्यवच्छिन्ना प्रजा भवति। अथ यदेव वासयत तेन मनुष्येभ्यः ऋणं जायते तद्धयेभ्य एतत्करोति यदेनान् वासयते यदेभ्योऽशनं ददाति स य एतानि सर्वाणि करोति स कृतकर्मा तस्य सर्वमाप्तं सर्वजितम्।” शत०का० १७।२।१-५॥ ब्राह्मण उत्पन्न होते ही तीन ऋणों से ऋणवान हो जाता है, ब्रह्मचर्य से विद्याभ्यास करके ऋषियों का, यज्ञों से देवों का और प्रजा से पितृ लोगों का ऋण शोध होता है। (तै० सं०) जो भी उत्पन्न होता है उस पर देव, ऋषि, पितर और मनुष्य चारों के ऋण हो जाते हैं। यज्ञों से देवों का ऋण उतरता है, अनुप्रवचन और अध्ययन कार्य से ऋषियों का ऋण उतरता है, विद्यावान् पुरुष ऋषियों का ‘निधिगोपा’ अर्थात् ख़ज़ानची कहाता है। प्रजाओं से पितरों का ऋण उतरता है इससे प्रजातन्तु टूटता नहीं। मनुष्यों के घरों में अतिथि रूप से रहने और भोजन करने से मनुष्यों का ऋण होता है। घर पर अतिथियों को वास देने और भोजन वस्त्र देने से मनुष्यों का ऋण चुकता है। जो इन सब कार्यों को करता है वह ‘कृतकर्मा’ है उस को सब प्राप्त होता है वह सब पर विजय प्राप्त करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अनृणकामः कौशिक ऋषिः। अग्नि र्देवता। त्रिष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Debt of Obligation

    Meaning

    Let us be free from debt here in this world. Let us be free from debt in the other. And let us be free from debt in the third world. The paths of Divinities, the paths of ancestors and life givers, all these paths, let us tread in freedom without debt over all the worlds.

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    Translation

    From debt in this world, free from debt in the yonder world, and free from debt may we be in the third world. What abodes are visited by the enlightened ones and by the elders, may we reach them all free from debt.

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    Translation

    May we be free from debt in this world may we be unindebted in yonder world, may we be without debt in the third world—the state of emancipation and may we abide umindebted in all the pathways which are known as the worlds of Devayana and Pitriyana.

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    Translation

    May we be free from debt in the first stage of boyhood, in the second stage of youth, and in the third stage of old age. May we, debt-free, abide in all the pathways in all the places, which the learned and the wise visit.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(अनृणाः) ऋणरहिताः (अस्मिन्) प्रथमे बाल्ये (परस्मिन्) द्वितीये यौवने (तृतीये) वार्द्धिके (लोके) लोकृ दर्शने, भाषायां, दीप्तौ च−घञ्। वयसि। समाजे (स्याम) भवेम (ये) (देवयानाः) अ० ३।१५।२। विजिगीषूणां व्यापारिणां विमानरथादीनां गमनयोग्याः (पितृयाणाः) पालकैर्विज्ञानिभिर्गमनीयाः (च) (लोकाः) धामानि। समाजाः (सर्वान्) लोकान् पथश्च (पथः) प्रथमायां द्वितीया। पन्थानः। मार्गाः (आसमन्तात्) (क्षियेम) क्षि निवासगत्योः। गच्छेम ॥

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