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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अंशः, भगः, वरुणः, मित्रम्, अर्यमा, अदितिः, मरुद्गणः छन्दः - संस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - आत्मगोपन सूक्त
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    अंशो॒ भगो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मादि॑तिः॒ पान्तु॑ म॒रुतः॑। अप॒ तस्य॒ द्वेषो॑ गमेदभि॒ह्रुतो॑ यावय॒च्छत्रु॒मन्ति॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अंश॑: । भग॑: । वरु॑ण: । मि॒त्र: । अ॒र्य॒मा । अदि॑ति: । पान्तु॑ । म॒रुत॑: । अप॑ । तस्य॑ । द्वेष॑: । ग॒मे॒त् । अ॒भि॒ऽह्रुत॑: । य॒व॒य॒त् । शत्रु॑म् । अन्ति॑तम् ॥४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अंशो भगो वरुणो मित्रो अर्यमादितिः पान्तु मरुतः। अप तस्य द्वेषो गमेदभिह्रुतो यावयच्छत्रुमन्तितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अंश: । भग: । वरुण: । मित्र: । अर्यमा । अदिति: । पान्तु । मरुत: । अप । तस्य । द्वेष: । गमेत् । अभिऽह्रुत: । यवयत् । शत्रुम् । अन्तितम् ॥४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (अंशः) विभाग करनेवाला, (भगः) सेवने योग्य (वरुणः) अपान वायु, (मित्रः) प्राण वायु, (अर्यमा) अन्धकारनाशक सूर्य, और (अदितिः) अदीन भूमि (मरुतः) शूर देवताओं की (पान्तु) रक्षा करें। वे (अभिह्रुतः) कुटिलशील (तस्य) हिंसक चोर के (द्वेषः) दुष्टता को (अप गमेत्=गमयेयुः) हटा देवें और (अन्तितम्) बन्ध में डालनेवाले (शत्रुम्) शत्रु को (यवयत्=यवयेयुः) पृथक् करें ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य भीतरी और बाहिरी अवस्था को सुधार कर अपने दोषों का नाश करके उन्नति करें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(अंशः) विभाजकः (भगः) भजनीयः। सेवनीयः (वरुणः) अपानः (मित्रः) प्राणः (अर्यमा) अ० ३।१४।२। अन्धकारनाशक आदित्यः (अदितिः) अ० २।२८।४। अदीना भूमिः (पान्तु) रक्षन्तु (मरुतः) अ० १।२०।१। शूरान् देवान् (अप) दूरीकरणे (तस्य) तर्द हिंसायाम्−ड। हिंसकस्य। चोरस्य (द्वेषः) द्विष−असुन्। अप्रीतिम् (गमेत्) अन्तर्गतणिजर्थः, बहुवचनस्यैकवचनम्। गमयेयुः (अभिह्रुतः) ह्वृ कौटिल्ये−क्विप्। कुटिलस्य (यवयत्) यु मिश्रणामिश्रयणयोः−ण्यन्ताल्लेटि अडागमो वृद्ध्यभावो बहुवनस्यैकवचनं च। यवयेयुः पृथक् कुर्युः (शत्रुम्) वैरिणम् (अन्तितम्) अति बन्धने−कर्तरि क्तः। बन्धकम् ॥

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    विषय

    अंशः मरुतः

    पदार्थ

    १. (अंश:) = विभाग की देवता [विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः], (भग:) = ऐश्वर्य, (वरुण:) = निर्द्वषता, (मित्र:) = सबके प्रति स्नेह, (अर्यमा) = [अरीन् यच्छति] संयम, (अदितिः) = स्वास्थ्य को देवता, (मरुतः) = प्राण-ये सब (पान्तु) = मेरा रक्षण करें। मैं बाँटकर खानेवाला बनें, ऐश्वर्य का अर्जन करूँ, निषता, स्नेह, संयम व स्वास्थ्य को प्राप्त करूँ। प्राणसाधना को महत्त्व हूँ। २. (तस्य) = उस (अभिहुत:) = कुटिल पुरुष का (द्वेषः) = द्वेष (अपगमेत्) = हमसे दूर हो। इस (अन्तितम्) = [अति बन्धने] बुरी भाँति जकड़ लेनेवाले (शत्रुम्) = शत्रु को (यावय) = हम दूर भगा दें।

    भावार्थ

    हम बाँटकर खाने की वृत्तिवाले बनें, प्राणसाधना में चलें, कुटिल पुरुष के द्वेष से बचें और बन्धनकारी शत्रु को दूर भगा दें।

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    भाषार्थ

    (अंश:) अन्नादि का आंशिक विभागकर्ता "अधिकारी", (भग:) साम्राज्य के समग्रैश्वर्य का अधिकारी "वित्ताधिकारी", (वरुणः ) साम्राज्य के प्रत्येक राष्ट्र का अधिपति राष्ट्र द्वारा 'वरण किया हुआ" अधिकारी (मित्रः) परराष्ट्रों के साथ मैत्री बढ़ाने वाला "विदेशनीति का दूत", (अर्यमा) मुख्य न्यायाधीश, (अदितिः) राजनीति की शिक्षा देने वाली वेदवाणी, (मरुतः) तथा सैनिक (पान्तु) ये सब हम प्रजाजनों की रक्षा करें। (तस्य) उस शत्रु का (अभिह्रुतः) कुटिल (द्वेष:) हमारे साथ किया गया द्वेष (अपगमेत्) दूर हो जाय। और (अन्तितम्) हमारी सीमान्त में फैले (शत्रुम्) शत्रु को (यावयत्) हमारा सम्राट् हमारो सीमा से अलग कर दे, परे कर दे।

    टिप्पणी

    [साम्राज्य में उत्पन्न अन्नादि सम्पत्ति का यथोचित विभागकर्ता= "अंशाधिकारी" इसे विभक्ता भी कहा है यथा "विभक्तार० हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः । सवितारं नृचक्षसम्" ॥४॥ (यजु० ३०।४)। राधसः "राधः धननाम" (निघं० २।१०)। भगः= ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः आदि देखो "सुभगा सरस्वती" (अथर्व० ६।३।२ भाष्य)। वरुणः = "इन्द्रश्च सम्राट् वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७)। मित्र:="मित्रेण मित्रधा यतस्व" (अथर्व० २।६।४)। अर्यमा= न्यायकारी य: आर्यान् मानयति; अरीन् वा नियच्छति। अदितिः=वाक् (निघं० १।११)। अभिह्रुत:- अभि+ह्वृ कौटिल्ये। यावयत्= यु मिश्रणामिश्रणयोः (अदादिः)। अन्तितम् अन्ति सोमा में + "तन्" विस्तृत, तनु विस्तारे (तनादिः) + डः (औणादिकः प्रत्ययः)]।

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    विषय

    रक्षा की प्रार्थना

    भावार्थ

    (अंशः) अंश, सब कर्मों और वृत्तियों का प्रजा में विभाजक, (भगः) सर्वैश्वर्यवान्, (वरुणः) सब से श्रेष्ठ, (मित्रः) मृत्यु से बचाने वाला, (अर्यमा) शत्रुओं का दमन करने वाला, (अदितिः) अखण्ड शक्ति वाला और (मरुतः) विद्वान् गण और प्राणगण (पान्तु) ये सब हमारी रक्षा करें। (तस्य) उस शत्रु का हमारे प्रति (अभिह्रुतः) कुटिल द्वेष भाव अप्रीतिभाव (अप गमेत्) दूर हो। और (अन्तितम्) समीप आये हुए (शत्रून्) शत्रु को भी (यवयत्) दूर करदे। अर्थात् द्वेष भाव नष्ट हो जाने पर शत्रु स्वयं समीप आकर भी हमसे दूर हो जायँ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। नाना देवताः। १ पध्याबृहती। २ संस्तार पंक्ति:। ३ त्रिपदा विराड् गायत्री। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prayer for Protection

    Meaning

    May Ansha, lord refulgent, Bhaga, giver of prosperity, Varuna, spirit of justice, Mitra, spirit of love and friendship, Aryama, spirit of advancement, Aditi, mother earth, and Maruts, vibrant brave, protect and promote us. Let the jealousy and enmity of the crooked be away while they ward off the enemy close at hand.

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    Translation

    May the Lord of illumination (ansah), the Lord of wealth and glory (bhagah), the venerable Lord, the friendly Lord the eternal law-giver, the indivisible one (aditi) and cloud bearing: winds protect us. May the injuring malice of that (foe) be removed far and may that enemy be cast away from us.

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    Translation

    May the rising sun, the sun of the noon, Oxygen, hydrogen, the sun in the after meridian, the earth and the vital airs guard us (by God’s grace), May the hatred of our oppressors part off and may the enemy who is near us keep off.

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    Translation

    May God, the Definer of the duties of men, Glorious, Most Eminent, the Savior from death, the Subduer foes, Omnipotent, and learned persons, preserve us. May we be freed from that oppressor's hatred. May the foeman who is near us be kept far away.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(अंशः) विभाजकः (भगः) भजनीयः। सेवनीयः (वरुणः) अपानः (मित्रः) प्राणः (अर्यमा) अ० ३।१४।२। अन्धकारनाशक आदित्यः (अदितिः) अ० २।२८।४। अदीना भूमिः (पान्तु) रक्षन्तु (मरुतः) अ० १।२०।१। शूरान् देवान् (अप) दूरीकरणे (तस्य) तर्द हिंसायाम्−ड। हिंसकस्य। चोरस्य (द्वेषः) द्विष−असुन्। अप्रीतिम् (गमेत्) अन्तर्गतणिजर्थः, बहुवचनस्यैकवचनम्। गमयेयुः (अभिह्रुतः) ह्वृ कौटिल्ये−क्विप्। कुटिलस्य (यवयत्) यु मिश्रणामिश्रयणयोः−ण्यन्ताल्लेटि अडागमो वृद्ध्यभावो बहुवनस्यैकवचनं च। यवयेयुः पृथक् कुर्युः (शत्रुम्) वैरिणम् (अन्तितम्) अति बन्धने−कर्तरि क्तः। बन्धकम् ॥

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