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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 62/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पावमान सूक्त
    1

    वै॑श्वान॒रीं वर्च॑स॒ आ र॑भध्वं शु॒द्धा भव॑न्तः॒ शुच॑यः पाव॒काः। इ॒हेड॑या सध॒मादं॒ मद॑न्तो॒ ज्योक्प॑श्येम॒ सूर्य॑मु॒च्चर॑न्तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वै॒श्वा॒न॒रीम् । वर्च॑से । आ । र॒भ॒ध्व॒म् । शु॒ध्दा: । भव॑न्त: । शुच॑य: । पा॒व॒का: । इ॒ह । इड॑या । स॒ध॒ऽमाद॑म् । मद॑न्त: । ज्योक् । प॒श्ये॒म॒ । सूर्य॑म् । उ॒त्ऽचर॑न्तम् ॥६२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वैश्वानरीं वर्चस आ रभध्वं शुद्धा भवन्तः शुचयः पावकाः। इहेडया सधमादं मदन्तो ज्योक्पश्येम सूर्यमुच्चरन्तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वैश्वानरीम् । वर्चसे । आ । रभध्वम् । शुध्दा: । भवन्त: । शुचय: । पावका: । इह । इडया । सधऽमादम् । मदन्त: । ज्योक् । पश्येम । सूर्यम् । उत्ऽचरन्तम् ॥६२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 62; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    धन और नीरोगता का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्यो !] (शुद्धाः) शुद्ध, (शुचयः) पवित्र और (पावकाः) शुद्ध करनेवाले (भवन्तः) होते हुए तुम (वैश्वानरीम्) सब नरों का हित करनेवाली [वेदवाणी] को (वर्चसे) तेज पाने के लिये (आरभध्वम्) आरम्भ करो। (इह) यहाँ पर (इडया) वेदवाणी से (सधमादम्) परस्पर हर्ष उत्सव को (मदन्तः) आनन्दित करते हुए हम (ज्योक्) बहुत काल तक (उच्चरन्तम्) चढ़ते हुए (सूर्य्यम्) सूर्य को (पश्येम) देखते रहें ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य वेदविद्या का आश्रय लेकर आप शुद्ध होकर और दूसरे अज्ञानियों को शुद्ध करके परस्पर आनन्द भोगते हुए चढ़ते हुए सूर्य के समान प्रतापी होवें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(वैश्वानरीम्) म० २। विश्वनरहितां वेदवाणीम् (वर्चसे) ब्रह्मवर्चसप्राप्तये (आ रभध्वम्) उपक्रमध्वम् (शुद्धाः) पवित्राचाराः (भवन्तः) सन्त (शुचयः) निष्पापाः (पावकाः) अन्येषां शोधकाः (इह) अस्मिन् लोके (इडया) वाचा। वेदवाण्या (सधमादम्) म० २। परस्परहर्षोत्सवम् (मदन्तः) अन्तर्गतण्यर्थः। मादयन्तः। आनन्दयन्तः (ज्योक्) अ० १।६।३। चिरकालम् (पश्येम) अवलोकयेम (सूर्यम्) आदित्यम् (उच्चरन्तम्) उद्गच्छन्तम् ॥

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    विषय

    शुचयः, पावका:

    पदार्थ

    १. (वैश्वानरीम्) = प्राणिमात्र का हित करनेवाले प्रभु की वेदवाणी को (आरभध्वम्) = पढ़ना आरम्भ करो। यह वर्चसे तुम्हारे (वर्चस्) = के लिए होगी। इससे (शुद्धाः भवन्त:) = पापशून्य होते हुए (शुचय:) = ब्रह्मवर्चस् से दीस बनकर (पावका:) = औरों को भी पवित्र करनेवाले बनो। २. (इह) = यहाँ-घरों में (इडया) = इस वेदवाणी से (सधमादं मदन्तः) = आनन्दपूर्वक मिलकर बैठने के स्थानों में आनन्दित होते हुए हम (ज्योक) = दीर्घकाल तक (उच्चरन्तं सूर्यम्) = उदय होते हुए सूर्य को (पश्येम) = देखें, अर्थात् बड़े दीर्घजीवी बनें।

    भावार्थ

    हम वेदवाणी के अध्ययन से पापरहित बनकर औरों को भी पवित्र करनेवाले हों। घरों में मिलकर, आनन्दपूर्वक इसका पाठ करें और दीर्घजीवी बनें।

     

    विशेष

    वेदवाणी के अध्ययन के द्वारा काम-क्रोध-लोभ आदि की जिघांसावाला यह पुरुष 'द्रुह्वणः' कहलता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है।



     

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    भाषार्थ

    (वर्चसे) ब्रह्मवर्चस आदि की प्राप्ति के लिये (वैश्वानरीम्) सब नर-नारियों के लिये हितकारिणी वेदवाणी [का स्वाध्याय] (आरभध्वम्) आरम्भ करो, [इस द्वारा] (शुद्धाः भवन्त:) शुद्ध होते हुए (शुचयः)अर्थात् मन से शुचि तथा शरीर से (पावकाः) पवित्र होकर (इह) इस पार्थिव जीवन में, (इडया१) अन्न द्वारा [सहभोजों द्वारा] (सधमादम्२) पारस्परिक अर्थात् सामाजिक, हर्ष अर्थात् उत्सव में (मदन्तः) हर्षित होते हुए (ज्योक्) चिरकाल के लिये (उच्चरन्तम्) ऊपर आकाश में विचरते (सूर्यम्) सूर्य को (पश्येम) हम देखें।

    टिप्पणी

    [१. इडा अन्ननाम (निघं० २।७)। २. णमुलन्तः, तस्यैव धातोरनुप्रयोगश्च (सायण)।]

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    विषय

    आभ्यन्तर शुद्धि का उपदेश।

    भावार्थ

    (वैश्वानरीम्) उस परमात्मा सम्बन्धी वेदवाणी को हे विद्वान् पुरुषो ! (शुचयः) मन और शरीर से = शुचि पवित्र और (पावकाः) औरों को भी पवित्र करने में समर्थ, (शुद्धाः भवन्तः) और शुद्ध होकर (वर्चसे आ रभध्वम्) बल वीर्य प्राप्त करने के लिये अभ्यास किया करो। और (इह) इस संसार में (इडया) अन्न से (सधमादं मदन्तः) एक ही साथ हर्ष उत्सव का आनन्द लेते हुए हम सब (ज्योक्) चिरकाल तक (उत्-चरन्तम्) ऊपर उठते हुए (सूर्यम्) सूर्य को (पश्येम) देखा करें। शुद्ध पवित्र होकर वेद का अभ्यास करें परस्पर मिलकर अन्न का भोग करें और दीर्घजीवन निभावें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। रुद्र उत मन्त्रोक्ता देवता। त्रिष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Purity

    Meaning

    Love, join and live by the cosmic voice of universal truth for humanity for the achievement of the lustre, splendour and glory of life, being thereby pure, sanctified and consecrated sanctifiers. Then, thereby, enjoying, celebrating and exalting ourselves and Divinity in yajnic congregations with songs of Vedic voice, may we rise for all time and see the sun, light of Divinity, rising higher and higher without end.

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    Translation

    Start, O men, reciting the speech of praises of Vaisvanara (the benefactor of all men) for splendour, becoming cleansed, pure and purifying. Here enjoying the happy gathering with good food, may we see the rising (uccarantam) sun for long.

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    Translation

    O people! commence your all the works to attain splendor with the divine speech and becoming pure, pious and conscientious, Here in this life, may we enjoying the pleasure in our yajna with this speech and corn see long the sun mounting up.

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    Translation

    O learned persons, for splendor, study the Vedic speech, the benefactor of humanity, being pure and brilliant yourselves, and purifying others. In this world, through our prayer, rejoicing in the banquet, long may we look upon the ascending Sun!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(वैश्वानरीम्) म० २। विश्वनरहितां वेदवाणीम् (वर्चसे) ब्रह्मवर्चसप्राप्तये (आ रभध्वम्) उपक्रमध्वम् (शुद्धाः) पवित्राचाराः (भवन्तः) सन्त (शुचयः) निष्पापाः (पावकाः) अन्येषां शोधकाः (इह) अस्मिन् लोके (इडया) वाचा। वेदवाण्या (सधमादम्) म० २। परस्परहर्षोत्सवम् (मदन्तः) अन्तर्गतण्यर्थः। मादयन्तः। आनन्दयन्तः (ज्योक्) अ० १।६।३। चिरकालम् (पश्येम) अवलोकयेम (सूर्यम्) आदित्यम् (उच्चरन्तम्) उद्गच्छन्तम् ॥

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