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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 73/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सामंनस्यम्, वरुणः, सोमः, अग्निः, बृहस्पतिः, वसुगणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त
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    यो वः॒ शुष्मो॒ हृद॑येष्व॒न्तराकू॑ति॒र्या वो॒ मन॑सि॒ प्रवि॑ष्टा। तान्त्सी॑वयामि ह॒विषा॑ घृ॒तेन॒ मयि॑ सजाता र॒मति॑र्वो अस्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । व॒: । शुष्म॑: । हृद॑येषु । अ॒न्त: । आऽकू॑ति: । या । व॒: । मन॑सि । प्रऽवि॑ष्टा । तान् । सी॒व॒या॒मि॒ । ह॒विषा॑ । घृ॒तेन॑ । मयि॑ । स॒ऽजा॒ता॒: । र॒मति॑: । व॒: । अ॒स्तु॒ ॥७३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो वः शुष्मो हृदयेष्वन्तराकूतिर्या वो मनसि प्रविष्टा। तान्त्सीवयामि हविषा घृतेन मयि सजाता रमतिर्वो अस्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । व: । शुष्म: । हृदयेषु । अन्त: । आऽकूति: । या । व: । मनसि । प्रऽविष्टा । तान् । सीवयामि । हविषा । घृतेन । मयि । सऽजाता: । रमति: । व: । अस्तु ॥७३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 73; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विद्वानों से समागम का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्वानो !] (यः) जो (शुष्मः) पराक्रम (वः) तुम्हारे (हृदयेषु अन्तः) हृदयों में भरा है, और (या) जो (आकूतिः) उत्साह वा शुभसंकल्प (वः) तुम्हारे (मनसि) मन में (प्रविष्टा) प्रवेश हो रहा है। [उसी के कारण] (हविषा) उत्तम अङ्ग से और (घृतेन) जल से (तान्) उन तुम सब की (सीवयामि=सेवे) मैं सेवा करता हूँ, (सजाताः) हे समान जन्मवाले बान्धवो ! (वः) तुम्हारी (रमतिः) क्रीड़ा [प्रसन्नता] (मयि) मुझ में (अस्तु) होवे ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य यथावत् शुश्रुषा करके विद्वानों से उत्तम-उत्तम विद्यायें ग्रहण करके अपने आत्मा को सदा सन्तुष्ट करते रहें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यः) (वः) युष्माकम् (शुष्मः) पराक्रमः। बलम् निघ० २।९। (हृदयेषु) विषयाणां ग्रहणशीलेषु चित्तेषु (अन्तः) मध्ये (आकूतिः) उत्साहः। शिवसंकल्पः (या) (वः) (मनसि) मननसाधने। अन्तःकरणे (प्रविष्टा) अन्तर्गता (तान्) तथाविधान् युष्मान् (सीवयामि) षेवृ सेवायाम्, एकारस्य ईत्वं चुरादित्वं च छान्दसम्। अहं सेवे। शुश्रूषयामि (हविषा) हव्येन देवयोग्यान्नेन (घृतेन) उदकेन−निघ० १।१२। (मयि) उपासके (सजाताः) हे समानजन्मानो बान्धवाः (रमतिः) रमेर्नित्। उ० ४।६३। इति रमु क्रीडायाम्−अति। क्रीडा। मनःप्रसन्नता (वः) युष्माकम् (अस्तु) भवतु ॥

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    विषय

    शुष्म, आकूति, हवि व घृत

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (व:) = तुम्हारे (हृदयेषु) = हदयों में (शुष्म:) = शत्रु-शोषक बल है, तथा (व:) = तुम्हारे (अन्त: मनसि) = हृदय-मध्यवर्ती मन में (या आकूतिः प्रविष्टा) = जो संकल्प प्रविष्ट है, (तान्) = उन संकल्पों व बलों को (हविषा) = त्याग की वृत्ति तथा (घृतेन) = ज्ञान-दीप्ति से (सीव्यामि) = सम्बद्ध कर देता हूँ। २. हे (सजाता:) = समान जन्मवाले व समानरूप से विकासवाले विद्यार्थियो! (मयि) = मुझमें (व:) = तुम्हारी (रमति:) = रमण अनुकूल वृत्ति हो। ('वसोष्यते निरमय मय्येवास्तु मयि श्रुतम्') - [अथर्व० १.१.२] में विद्यार्थी की प्रार्थना थी कि हे वसुओं के पति आचार्य! आप मुझे रमणवाला कीजिए-आनन्दमय प्रकार से पढ़ाइए, जिससे मेरा पढ़ा हुआ मुझमें ही स्थित हो। यहाँ आचार्य भी कहते हैं कि तुम मुझमें रमण करनेवाले होओ। मैं तुम्हें त्यागशील व ज्ञान दीप्त बनाता हूँ।

    भावार्थ

    आचार्य को विद्यार्थी के बल व संकल्प को त्यागवृत्ति व ज्ञान-दीप्ति से सम्बद्ध करना है। विद्यार्थियों के मन में त्यागवृत्ति हो और मस्तिष्क में ज्ञान।

     

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    भाषार्थ

    (वः) तुम्हारे (हृदयेषु अन्तः) हृदयों के अन्दर (यः) जो (शुष्मः) शत्रुशोषक बल है, (व:) तुम्हारे (मनसि) एकीभूत मन में (या) जो (आकूतिः) कल्पना [अर्थात् संकल्प] (प्रविष्टा) प्रविष्ट हुई है, (तान्) उन बलों और संकल्पों को (हविषा, घृतेन) यज्ञिय हवि और घृत द्वारा यज्ञ करके (सीवयामि) मैं सम्राट् संगठित करता हूँ, (सजाताः) हे एक साम्राज्य के पुत्रों ! (वः) तुम्हारी (रमतिः) प्रेमासक्ति (मयि अस्तु) मुझ सम्राट् में हो।

    टिप्पणी

    [लगे दरबार में एकत्रित हुए अधिकारियों और शिक्षकों के प्रति सम्राट् का भाषण है। शुष्मम् बलनाम (निघं० २।९) ]।

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    विषय

    एकचित्त होने का उपदेश।

    भावार्थ

    राजा अपने सचिवों और अधीन शासकों के प्रति कहे, हे सचिवो और मेरे अधीन शासको ! (यः) जो (वः) तुम्हारा (शुष्मः) बल है और (या) जो (वः मनसि) तुम्हारे मन में और (हृदयेषु) हृदयों में (आकूतिः) प्रबल इच्छा या कामना (अन्तः प्रविष्टा) भीतर घर किये बैठी है (तान्) उन सब बलों को और आप लोगों की उन उन इच्छाओं को (घृतेन) अपने स्नेह और तेज और (हविषा) अन्न और आजीविका प्रदान द्वारा (सीवयामि) अपने साथ बांधता हूँ। हे (स-जाता) बन्धुओ ! (वः) तुम लोगों की (रमतिः) आनन्द विनोद और अनुकूल प्रवृत्ति या अनुग्रह (मयि अस्तु) मेरे ऊपर रहे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। सांमनस्यमुत मन्त्रोक्ता नाना देवताः। १-२ अनुष्टुप् ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    United Humanity

    Meaning

    All the strength and power which is in your hearts, and all thoughts, intentions and purposes enshrined in your mind, with all these I lead you to sew yourselves together into a common united fabric, and I sprinkle this united vedi with the ghrta and fragrant havi of yajna, the one divine purpose of creative humanity. O people of the world, all equal in brotherhood, let all your love, interests and ambitions be united and centred into me.

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    Translation

    The vehemence, which your hearts have harboured, and the determination, which has entered your minds, 1 annul with purified butter and provisions (offerings); O kinsmen, in ine let your affection rest.

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    Translation

    O Kinsmen! I uphold with me providing you with butter and food whatever intrepidness you have in your hearts, whatever desire you have cherished in your mind and let your pleasure and sympathy be in me.

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    Translation

    O ministers, the fervor which your hearts have harbored, the resolve which hath occupied your mind, these I cement with my love and grant of livelihood. O Kinsmen, may ye be kind and loving unto me!

    Footnote

    The king addresses his ministers.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यः) (वः) युष्माकम् (शुष्मः) पराक्रमः। बलम् निघ० २।९। (हृदयेषु) विषयाणां ग्रहणशीलेषु चित्तेषु (अन्तः) मध्ये (आकूतिः) उत्साहः। शिवसंकल्पः (या) (वः) (मनसि) मननसाधने। अन्तःकरणे (प्रविष्टा) अन्तर्गता (तान्) तथाविधान् युष्मान् (सीवयामि) षेवृ सेवायाम्, एकारस्य ईत्वं चुरादित्वं च छान्दसम्। अहं सेवे। शुश्रूषयामि (हविषा) हव्येन देवयोग्यान्नेन (घृतेन) उदकेन−निघ० १।१२। (मयि) उपासके (सजाताः) हे समानजन्मानो बान्धवाः (रमतिः) रमेर्नित्। उ० ४।६३। इति रमु क्रीडायाम्−अति। क्रीडा। मनःप्रसन्नता (वः) युष्माकम् (अस्तु) भवतु ॥

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