अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 86/ मन्त्र 2
स॑मु॒द्र ई॑शे स्र॒वता॑म॒ग्निः पृ॑थि॒व्या व॒शी। च॒न्द्रमा॒ नक्ष॑त्राणामीशे॒ त्वमे॑कवृ॒षो भ॑व ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मु॒द्र: । ई॒शे॒ । स्र॒वता॑म् । अ॒ग्नि: । पृ॒थि॒व्या:। व॒शी । च॒न्द्रमा॑: । नक्ष॑त्राणाम् । ई॒शे॒ । त्वम् । ए॒क॒ऽवृ॒ष: । भ॒व॒ ॥८६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
समुद्र ईशे स्रवतामग्निः पृथिव्या वशी। चन्द्रमा नक्षत्राणामीशे त्वमेकवृषो भव ॥
स्वर रहित पद पाठसमुद्र: । ईशे । स्रवताम् । अग्नि: । पृथिव्या:। वशी । चन्द्रमा: । नक्षत्राणाम् । ईशे । त्वम् । एकऽवृष: । भव ॥८६.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
साम्राज्य पाने का उपदेश।
पदार्थ
(समुद्रः) समुद्र (स्रवताम्) बहते हुए जलों का (ईशे=ईष्टे) स्वामी है, (अग्निः) सूर्यरूप अग्नि (पृथिव्याः) पृथिवी का (वशी) वश में करनेवाला है। (चन्द्रमाः) चन्द्रमा (नक्षत्राणाम्) चलनेवाले नक्षत्रों का (ईशे) अधिष्ठाता है, [हे पुरुष !] (त्वम्) तू (एकवृषः) अकेला स्वामी (भव) हो ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य समुद्र, सूर्य, चन्द्र आदि लोकों की आकर्षण शक्ति देख कर अपना सामर्थ्य बढ़ावे ॥२॥
टिप्पणी
२−(समुद्रः) सागरः (ईशे) लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा० ७।१।४१। इति तलोपः। ईष्टे। ईश्वरो भवति (स्रवताम्) प्रवहतामुदकानाम् (अग्निः) सूर्यरूपोऽग्निः (पृथिव्याः) भूमेः (वशी) वशयिता। स्वामी (चन्द्रमाः) चन्द्रलोकः (नक्षत्राणाम्) अमिनक्षियजि०। उ० ३।१०५। इति णक्ष गतौ−अत्रन्। गतिशीलानां तारकाणाम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
'समुद्र, अग्नि व चन्द्र' की भांति
पदार्थ
१. (समुद्रः) = समुद्र (स्त्रवताम्) = बहते हुए जलप्रवाहों का (ईशे) = स्वामी है। यह 'सरितां पतिः' कहलाता है। (अग्निः) = अग्नि (पृथिव्याः वशी) = पृथिवी को वश में करनेवाला है। अग्निही पृथिवी का प्रमुख देव है। (चन्द्रमा:) = चन्द्रमा (नक्षत्राणम् ईशे) = नक्षत्रों का ईश है। इसका नाम ही 'नक्षेश' है। हे उपासक (त्वम्) = तू भी 'समुद्र, अग्नि व चन्द्र' की भाँति (एकवृषः भव) = अद्वितीय स्वामी बन। समुद्र आदि का स्वामीत्व अव्याहत है, तेरा भी इन्द्रियों पर स्वामित्व अव्याहत हो।
भावार्थ
हम 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि' के इसीप्रकार स्वामी बनें जैसे समुद्र नदियों का, अग्नि पृथिवी का तथा चन्द्र नक्षत्रों का ईश है।
भाषार्थ
(समुद्रः) समुद्र (ईशे=ईष्टे) अधीश्वर है (स्रवताम्) प्रवाहो नदियों का, (अग्निः) अग्नि (पृथिव्याः) पृथिवी का (वशी) वशयिता अर्थात् स्वामी है, (चन्द्रमाः) चान्द (नक्षत्राणाम्) नक्षत्रों का (इशे=ईष्टे) अधीश्वर है, (त्वम्) तू हे राजन् ! (एकवृषः भव) अकेला सब का मुखिया हो। [ईशे="लोपस्त आत्मनेपदेषु" (अष्टा० ७।१॥४१) द्वारा "त" का लोप]।
विषय
सर्वश्रेष्ठ बन
शब्दार्थ
(स्रवताम्) बहनेवाले जलों, नली-नालों पर (समुद्रः) समुद्र (ईशे) शासन करता है (पृथिव्याः) पृथिवी पर उत्पन्न होनेवाले पदार्थों को (अग्नि:) अग्नि ( वशी) वश में किये हुए है (नक्षत्राणाम्) नक्षत्रों में (चन्द्रमा) चन्द्रमा (ईशे) सबपर शासन करता है, उन्हें अपने तेज से दबा लेता है, उसी प्रकार हे मनुष्य ! तू सम्पूर्ण प्राणियों में (एक-वृष:) एकमात्र सर्वश्रेष्ठ (भव) बन, बनने का प्रयत्न कर ।
भावार्थ
१. बहनेवाले नदी-नालों को देखिये और समुद्र के ऊपर एक दष्टि डालिए । समुद्र अपनी विशालता, गहनता, गम्भीरता और महान् जलराशि के कारण सभी नदी-नालों पर शासन करता है । समुद्र सभी नदी-नालों में ज्येष्ठ और श्रेष्ठ है। २. अपने तेज और दाहक शक्ति के कारण अग्नि सारी पृथिवी को, पृथिवी पर उत्पन्न होनेवाली सभी वनस्पतियों को अपने वश में रखता है । ३. प्रकाश में करोड़ों तारे टिमटिमाते हैं, चन्द्रमा अपने तेज से उन सबको दबाकर उनपर शासन करता है । वेद इन तीन दृष्टान्तों को मनुष्य के सम्मुख रखकर उसे उद्बोधन देते हुए कहता है, जिस प्रकार नदियों में समुद्र सर्वश्रेष्ठ है, जिस प्रकार पृथिवी पर अग्नि सबपर शासन करती है, नक्षत्रों में जिस प्रकार चन्द्रमा सर्वश्रेष्ठ है । हे मानव ! तू भी इसी प्रकार सब प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ बनने का प्रयत्न कर ।
विषय
सर्वश्रेष्ठ होने का उपदेश।
भावार्थ
जिस प्रकार (स्रवताम्) बहने वाले जलों, नदी नालों को (समुद्रः) समुद्र ही (ईशे) वश करता है, जिस प्रकार (पृथिव्याः) पृथिवी के तल पर होने वाली सब वनस्पतियों को (अग्निः) अग्नि, उन्हें भस्म करने वाला होने के कारण (वशी) उन्हें वश किये हुए है, और जिस प्रकार (नक्षत्राणाम्) नक्षत्रों में से (चन्द्रमाः ईशे) चन्द्र ही अपने तेज से सब के प्रकाशों को दबा लेता है, उसी प्रकार हे पुरुष ! तू समस्त प्रजाजनों के बीच में (एक-वृषः) एकमात्र सर्वश्रेष्ठ (भव) हो, होने का यत्न कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषकामोऽथर्वा ऋषिः। एकवृषो देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The One Supreme
Meaning
The ocean rules over all the floods, Agni rules over the whole earth, the moon is the most glorious of the nakshatras. O man, you too be the generous one most excellent over all people dedicated to One Suprenme.
Translation
The ocean is the lord of the streams, the fire has the sway over land; the moon is lord of the stars. May you be the one and only powerful lord.
Translation
The ocean is regent of rivers, the fire is the controller of the earth and the moon is the master of stars. Let you be, O man! only lord of your possessions.
Translation
The sea is regent of the floods, the Sun is ruler of the earth, the Moon is regent of the stars, be thou, O man, the one and only lord!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(समुद्रः) सागरः (ईशे) लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा० ७।१।४१। इति तलोपः। ईष्टे। ईश्वरो भवति (स्रवताम्) प्रवहतामुदकानाम् (अग्निः) सूर्यरूपोऽग्निः (पृथिव्याः) भूमेः (वशी) वशयिता। स्वामी (चन्द्रमाः) चन्द्रलोकः (नक्षत्राणाम्) अमिनक्षियजि०। उ० ३।१०५। इति णक्ष गतौ−अत्रन्। गतिशीलानां तारकाणाम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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