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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - आत्मा छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - आत्मा सूक्त
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    स वे॑द पु॒त्रः पि॒तरं॒ स मा॒तरं॒ स सू॒नुर्भु॑व॒त्स भु॑व॒त्पुन॑र्मघः। स द्यामौ॑र्णोद॒न्तरि॑क्षं॒ स्वः स इ॒दं विश्व॑मभव॒त्स आभ॑वत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । वे॒द॒ । पु॒त्र: । पि॒तर॑म् । स: । मा॒तर॑म् । स: । सू॒नु: । भु॒व॒त् । स: । भु॒व॒त् । पुन॑:ऽमघ: । स: । द्याम् । औ॒र्णो॒त् । अ॒न्तरि॑क्षम् । स्व᳡: । स: । इ॒दम् । विश्व॑म् । अ॒भ॒व॒त् । स: । आ । अ॒भ॒व॒त् ॥१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स वेद पुत्रः पितरं स मातरं स सूनुर्भुवत्स भुवत्पुनर्मघः। स द्यामौर्णोदन्तरिक्षं स्वः स इदं विश्वमभवत्स आभवत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । वेद । पुत्र: । पितरम् । स: । मातरम् । स: । सूनु: । भुवत् । स: । भुवत् । पुन:ऽमघ: । स: । द्याम् । और्णोत् । अन्तरिक्षम् । स्व: । स: । इदम् । विश्वम् । अभवत् । स: । आ । अभवत् ॥१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह (पुत्रः) अनेक प्रकार रक्षा करनेवाला परमेश्वर (पितरम्) पालन के हेतु सूर्य को (सः) वह (मातरम्) निर्माण के कारण भूमि को (वेद) जानता है, (सः) वह (सूनुः) सर्वप्रेरक (भुवत्) है, (सः) वह (पुनर्मघः) वारंवार धनदाता (भुवत्) है। (सः) उसने (अन्तरिक्षम्) आकाश और (द्याम्) प्रकाशमान (स्वः) सूर्यलोक को (और्णोत्) घेर लिया है, (सः) वह (इदम्) इस (विश्वम्) जगत् में (अभवत्) व्याप रहा है, (सः) वही (आ) समीप होकर (अभवत्) वर्तमान हुआ है ॥२॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा सूर्य, पृथिवी आदि ब्रह्माण्ड में व्याप कर सबका धारण कर रहा है, वही हम में भरपूर है, ऐसा समझनेवाले पुरुष आत्मबल पाकर पुरुषार्थी होते हैं ॥२॥ इस मन्त्र का मिलान-अ० २।२८।४। से भी करो ॥

    टिप्पणी

    २−(सः) प्रजापतिः (वेद) वेत्ति (पुत्रः) अ० १।११।५। पुत्रः पुरु त्रायते-निरु० २।११। बहुत्राता (पितरम्) अ० २।˜२८।४। पालनहेतुं सूर्यम् (मातरम्) अ० २।२८।४। निर्मात्रीं पृथिवीम् (सूनुः) अ० ६।१।२। सर्वस्य प्रेरकः (भुवत्) भवति (पुनर्मघः) अ० ५।११।१। वारंवारं धनदाता (द्याम्) अ० १।२।४। द्योतमानम् (और्णोत्) ऊर्णुञ् आच्छादने-लङ्। आच्छादितवान् (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (स्वः) अ० २।५।२। स्वरादित्यो भवति सु अ रणः सु ईरणः निरु० २।१४। आदित्यम् (सः) (इदम्) दृश्यमानम् (विश्वम्) जगत् (अभवत्) भू व्याप्तौ। व्याप्नोत् (आ) समीपे (अभवत्) वर्तते स्म ॥

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    विषय

    सच्चा पुत्र

    पदार्थ

    १. (स: पुत्र:) = गतमन्त्र में जिस अथर्वा की जीवनयात्रा का चित्रण किया है, वह सच्चा पुत्र [पुनाति त्रायते]-अपने जीवन को पवित्र व रक्षित करनेवाला (पितरं वेद) = अपने पिता प्रभु को जाननेवाला होता है। (सः मातरं वेद) = वह अपनी इस मातृभूत वेदवाणी को जानता है। (सः सूनुः भुवत्) = वह अपने माता-पिता का सच्चा पुत्र होता है। (पुन:) = फिर (स:) = वह (मघः भुवत्) = ऐश्वर्य का पुज बनता है अथवा ('मघ इति मखनाम') वह यज्ञशील होता है। २. (स:) = वह (द्याम्) = अपने मस्तिष्करूप धुलोक को (और्णोत) = आच्छादित करता है-उसे लोभ के आक्रमण से विनष्ट नहीं होने देता। (अन्तरिक्षम्) = वह हृदयान्तरिक्ष को आच्छादित करता है-उसे क्रोध के आक्रमण से बचाता है। परिणामत: वह (स्व:) = सुख को प्राप्त होता है। [स्वर्ग व्याप्नोति-सा०]। (स:) = वह लोभ, क्रोध आदि से ऊपर उठकर (इदं विश्वम् अभवत्) = यह सम्पूर्ण विश्व हो जाता है ("वसधैव कुटुम्बकम") = पृथिवी को ही अपना परिवार जानता है। (सः आभवत्) = अन्ततः मुक्त होकर (सर्वत:) = ब्रह्म के साथ [आ] विचरता है, ब्रह्म के साथ होता है।

    भावार्थ

    हम पिता प्रभु व माता वेद को जानें। हम माता-पिता के सच्चे पुत्र बनकर यज्ञशील हों। मस्तिष्क में लोभ न आने दें, हृदय में क्रोध से दूर रहें। इसप्रकार सुख का व्यापन करें। वसुधा को ही परिवार जानें। मुक्त होकर सर्वत्र प्रभु के साथ विचरें।

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    भाषार्थ

    (सः पुत्रः) वह पुत्र परमेश्वर (पितरम्) द्यौः पिता को, (स: मातरम्) वह पृथिवी माता को (वेद) जानता है, (सः सूनुः) वह जगत् का प्रेरक (भुवत्) हुआ है, (सः) वह (पुनर्मघः) वार-वार ऐश्वर्यवान् (भुवत्) हुआ है। (सः) वह (द्याम्, अन्तरिक्षम् स्वः) द्युलोक को, अन्तरिक्ष और स्वर्लोक को (और्णोत) निज व्याप्ति द्वारा आच्छादित किये हुआ है। (सः) यह (इदम्, विश्वम) इस विश्व को (अभवत्) प्राप्त है, (सः) वह (आ अभवत्) सर्वत्र सत्तावान् हुआ है, विद्यमान है।

    टिप्पणी

    [परमेश्वर, पिता और पृथिवी माता का पुत्र है, इन दोनों की विविध घटनाओं द्वारा परमेश्वर की सत्ता का परिज्ञान होता है, अतः परमेश्वर को द्यौः और पृथिवी का पुत्र कहा है। सूनुः का अर्थ पुत्र नहीं, क्योंकि पुत्र का कथन पूर्व हो चुका है, अतः सूनुः का अर्थ है प्रेरक, षू प्रेरणे (तुदादिः)। अभवत्= भू प्राप्तौ (चुरादिः) आ अभवत् = आ (सर्वत्र) + अभवत् (भू सत्तायाम् भ्वादिः)। पुनर्मघः= मघ का अर्थ है धन अर्थात् ऐश्वर्य। प्रलय काल में परमेश्वर जगतरूपी धन से रहित हो जाता है, और जगत् को पैदा कर वह पुनः मघवान् हो जाता है। यह अवस्था वार-वार के प्रलय और सृष्टि में होती रहती है। परमेश्वर को "मघवा" भी कहते हैं, मघवा= मघवाला, धन वाला]।

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    विषय

    ब्रह्मज्ञानी पुरुष।

    भावार्थ

    (सः) वह आत्मा (पुत्रः) उस परमेश्वर का पुत्र होकर उस परम आत्मा को अपना (पितरं) पालक (मातरं) और माता के समान बीज धारक (वेद) जानता है। (स) वह (सूनुः) इस देह में उत्पन्न (भुवत्) होता है और (सः) वही (पुनः मघः) बार बार अपने कर्मफल एवं ऐश्वर्य से सम्पन्न (भुवत्) हो जाता है। और (सः) वह परमात्मा (द्याम्) द्यौः और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष, मध्य आकाश और (स्वः) सुखमय, प्रकाशमय मोक्षपद को भी (और्णोत्) अपने वश किए हुए है (सः) वह (इदं विश्वम्) इस समस्त विश्व को (अभवत्) उत्पन्न करता है और (सः) वही (आ भवत्) सब सामर्थ्य रूप से सर्वत्र व्यापक है। इसका विवरण देखो (श्वेताश्वतर उप० अ० ५। ६।)

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मवर्चसकामोऽथर्वा ऋषिः। आत्मा देवता। १ त्रिष्टुप्। २ विराड्जगतीं। द्वयृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Realisation

    Meaning

    He the All-Saviour pervades the heavens and the earth, which are father and mother of the world of existence. He is the creator and the inspirer of life. He takes on the glory and majesty of existence again and again. He pervades, comprehends and sustains the regions of bliss, the regions of light and the middle regions of the sky. He pervades this entire universe. He is present everywhere, here and now and always.

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    Translation

    He, the son, knows the father; He (knows) the mother; He becomes the impeller (sunuh), He becomes the bounteous replenisher. He envelopes the sky, the midspace and the world of bliss. He becomes all this (universe). He exists every where all around.

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    Translation

    He (God)like a son who knows his father and his mother, knows everything of this universe, He is the Impelling creator and He is the All-powerful Lord, He has encompassed the heaven, the middle region and the luminiferous Space, He is controlling this universe and He is pervading everything.

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    Translation

    This soul being the son of God, knows Him as his father and mother. The soul takes birth in the body, and reaps the fruit of its actions again and again. God hath encompassed heaven, and air’s mid-realm, and sky. He creates the universe, and is All-pervading.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(सः) प्रजापतिः (वेद) वेत्ति (पुत्रः) अ० १।११।५। पुत्रः पुरु त्रायते-निरु० २।११। बहुत्राता (पितरम्) अ० २।˜२८।४। पालनहेतुं सूर्यम् (मातरम्) अ० २।२८।४। निर्मात्रीं पृथिवीम् (सूनुः) अ० ६।१।२। सर्वस्य प्रेरकः (भुवत्) भवति (पुनर्मघः) अ० ५।११।१। वारंवारं धनदाता (द्याम्) अ० १।२।४। द्योतमानम् (और्णोत्) ऊर्णुञ् आच्छादने-लङ्। आच्छादितवान् (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (स्वः) अ० २।५।२। स्वरादित्यो भवति सु अ रणः सु ईरणः निरु० २।१४। आदित्यम् (सः) (इदम्) दृश्यमानम् (विश्वम्) जगत् (अभवत्) भू व्याप्तौ। व्याप्नोत् (आ) समीपे (अभवत्) वर्तते स्म ॥

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