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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 109 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 109/ मन्त्र 2
    ऋषिः - बादरायणिः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्रभृत सूक्त
    1

    घृ॒तम॑प्स॒राभ्यो॑ वह॒ त्वम॑ग्ने पां॒सून॒क्षेभ्यः॒ सिक॑ता अ॒पश्च॑। य॑थाभा॒गं ह॒व्यदा॑तिं जुषा॒णा मद॑न्ति दे॒वा उ॒भया॑नि ह॒व्या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तम् । अ॒प्स॒राभ्य॑: । व॒ह॒ । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । पां॒सून् । अ॒क्षेभ्य॑: । सिक॑ता: । अ॒प: । च॒ । य॒था॒ऽभा॒गम् । ह॒व्यऽदा॑तिम् । जु॒षा॒णा: । मद॑न्ति । दे॒वा: । उ॒भया॑नि । ह॒व्या ॥११४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतमप्सराभ्यो वह त्वमग्ने पांसूनक्षेभ्यः सिकता अपश्च। यथाभागं हव्यदातिं जुषाणा मदन्ति देवा उभयानि हव्या ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घृतम् । अप्सराभ्य: । वह । त्वम् । अग्ने । पांसून् । अक्षेभ्य: । सिकता: । अप: । च । यथाऽभागम् । हव्यऽदातिम् । जुषाणा: । मदन्ति । देवा: । उभयानि । हव्या ॥११४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 109; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    व्यवहारसिद्धि का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे विद्वान् पुरुष ! (त्वम्) तू (अप्सराभ्यः) अप्सराओं [प्राणियों में व्यापक शक्तियों] के लिये और (अक्षेभ्यः) व्यवहारों [की सिद्धि] के लिये (पांसून्) धूलि [भूमिस्थलों] से (च) और (सिकताः) सींचनेवाले (अपः) जलों से (घृतम्) घृत [सार पदार्थ] (वह) पहुँचा। (देवाः) विद्वान् लोग (यथाभागम्) भाग के अनुसार (हव्यदातिम्) ग्राह्य पदार्थों के दान का (जुषाणाः) सेवन करते हुए (उभयानि) पूर्ण (हव्या) ग्राह्य पदार्थों को (मदन्ति) भोगते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य भूमिविद्या, जलविद्या आदि में निपुण होकर आत्मपोषण और समाजपोषण का सामर्थ्य अपने पुरुषार्थ के अनुसार बढ़ावें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(घृतम्) सारपदार्थम् (अप्सराभ्यः) अ० २।२।३। अप्सु प्रजासु सरणशीलाभ्यो व्यापिकाभ्यः शक्तिभ्यः (वह) द्विकर्मकः। प्रापय (त्वम्) (अग्ने) विद्वन् पुरुष (पांसून्) अर्जिदृशिकम्यमिपंसि०। उ० १।२७। इति पसि नाशने-कु, दीर्घश्च। पांसवः पादैः सूयन्त इति वा, पन्ना शेरत इति वा पंसनीया भवन्तीति वा-निरु० १२।१९। धूलिकणान्। भूमिस्थलानीत्यर्थः (अक्षेभ्यः) अ० ६।७०।१। व्यवहारान् साधितुम् (सिकताः) पृषिरञ्जिभ्यां कित्। उ० ३।१११। सिक सेचने-अतच्, स च कित्। सेचनसमर्थाः (अपः) जलानि (च) (यथाभागम्) भागमनतिक्रम्य (हव्यदातिम्) हव्यानां ग्राह्यपदार्थानां दानम् (जुषाणाः) सेवमानाः (मदन्ति) आनन्दयन्ति (देवाः) विद्वांसः (उभयानि) वलिमलितनिभ्यः कयन्। उ० ४।९९। इति उभ पूरणे-कयन्। पूर्णानि (हव्या) ग्राह्यवस्तूनि ॥

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    विषय

    यज्ञ व हव्य-सेवन

    पदार्थ

    १.हे (अग्ने) = परमात्मन्! (त्वम्) = आप (अप्सराभ्यः) = [अप-कर्म] यज्ञादि उत्तम कर्मों में विचरनेवाली प्रजाओं के लिए (घृतम् वह) = ज्ञानदीति व मल-क्षरण को प्राप्त कराइए, (च) = और (अक्षेभ्यः) = पवित्र ज्ञानों की प्राप्ति के लिए (पासून्) = [पशि नाशने] वासना-विनाशों को तथा (सिकता: अपः) [षिच् क्षरणे] = शरीर में सिक्त किये जानेवाले रेत:कणरूप जलों को प्राप्त कराइए। प्रभु कर्मशील प्रजाओं को ज्ञान प्राप्त कराते हैं। ज्ञान के लिए वे वासना-विनाश द्वारा शरीर में ही शक्तिकणों के सेवन का सामर्थ्य प्रास कराते हैं। शरीर में सिक्त रेत:कण ही ज्ञानाग्नि का ईधन बनते हैं। २. इसप्रकार ज्ञानदीप्तिवाले (देवा:) = ये देववृत्ति के पुरुष (यथाभागम्) = भाग के अनुसार (हव्यदातिं जुषाणा:) = हव्य[पवित्र] पदार्थों के दान का सेवन करते हुए-यज्ञों में अग्नि के अन्दर हव्य पदार्थों को डालते हुए, (उभयानि हव्या) = [पय: पशूनां रसमोषधीनाम्] पशुओं के दूध व ओषधियों के रसरूप दोनों हव्य पदार्थों के आनन्द का मदन्ति-अनुभव करते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु कर्मशील प्रजाओं को ज्ञान प्राप्त कराते हैं। ज्ञान प्राप्त कराने के लिए ही वासना-विनाश व शरीर में शक्ति के सेचन का सामर्थ्य देते हैं। ये देव अपने भाग के अनुसार यज्ञों को करते हुए पशुओं के दूध व ओषधियों के रस का आनन्द लेते हैं।

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रि ! (त्वम्) तु (अप्सराभ्यः) अन्तरिक्ष में सरण करने वाली प्राकृतिक शक्तियों के लिये (घृतम्) घृताहुतियों द्वारा घृत (वह) प्राप्त करा, और (प्रक्षेभ्यः) अक्षक्रीड़ा करने वालों के लिये (पांसून) रजःकण अर्थात् रेता, (सिकताः) बजरी (च) और (अपः) कारागार में कर्म करना प्राप्त करा। (देवाः) और राष्ट्र के [मन्त्र ६] दिव्यगुणी व्यक्ति (यथाभागम्) निज भागानुसार (हव्यदातिम्) प्रदत्त हवि का (जुषाणाः) प्रीतिपूर्वक सेवा करते हुए (उभयानि हव्या=हव्यानि) दोनों प्रकार की हवियों का [आस्वादन करते हुए] (मदन्ति) तृप्त रहें।

    टिप्पणी

    [अप्सराभ्यः= ओषधयोऽप्सरसः। परीचयोप्सरसः। आपोऽप्ससः। (यजु० १८।३८, ३९, ४१, यथाक्रम)। आहुतियों द्वारा प्राकृतिक शक्तियां तथा प्राणी पुष्ट हो कर दीर्घायु होते हैं। यथा “आयुर्वै घृतम्”। ऋग्वेद में कहा है कि “अक्षैर्मा दीव्यः” (ऋ० १०‌।३४।१३), तू अक्षों द्वारा द्यूतक्रीड़ा न कर। वैदिक आदेशों में परस्पर विरोध नहीं होता। अतः व्याख्येय मन्त्र में अक्षक्रीड़ा करने वालों के लिये दण्ड विधान किया है कि उन्हें कारागार में बन्द कर उन्हें पत्थर कूट कर [राष्ट्र के लिये] रेता, बजरी तयार करने में लगाना चाहिये। अपः कर्मनाम (निघं० २।१)। मन्त्र में "अपः" का अर्थ है रेता, बजरी तय्यार कर रूपी कर्म। सायणाचार्य ने यह भावना प्रकट की है कि "जिसरी विरोधी कितवों का पराजय हो सके उनके मुखों में पांसु आदि फेंक"। राष्ट्र के देवों को हव्य अर्थात् सात्त्विक पदार्थ खाने-पीने के लिये देने चाहिये। यथा ब्रीहि-यव तथा गोदुग्ध आदि]।

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    विषय

    ब्रह्मचारी का इन्द्रियजय और राजा का अपने चरों पर वशीकरण।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्विन् ! तपस्विन् ! (त्वम्) तू (अप्सराभ्यः) ज्ञान मार्गों में सरण करनेहारी इन्द्रियों के लिये (घृतम्) पुष्टिकारक घृत और प्रकाशस्वरूप ज्ञान को (वह) प्राप्त कर, और (अक्षेभ्यः) क्रीड़ाशील कर्मेन्द्रियों के लिये (पांसून्) भूमि प्रदेश, (सिकताः) सेचनद्रव्य या बालू के समान रूक्ष पदार्थ और (अपः च) शोधन पदार्थ, जल को प्राप्त कर। इस प्रकार (देवाः) शरीर में क्रीड़ा करने वाले हर्षशील या गतिशील इन्द्रियगण (यथा-भागम्) अपनी सेवनशक्ति के अनुसार (हव्य-दातिम्) भोग्य अन्न के भाग को (जुषाणाः) प्राप्त करते हुए (उभयानि) वनस्पतिर्षो से उत्पन्न अन्न, और पशुओं से उत्पन्न घृत, दूध आदि दोनों प्रकार के (हव्या) हव्य = भोग योग्य अन्न पदार्थों को प्राप्त कर (मदन्ति) प्रसन्न रहते हैं। अर्थात् ज्ञानशील इन्द्रियों को घृत आदि स्निग्ध पदार्थ द्वारा अधिक ज्ञान-ग्रहणशक्ति से सम्पन्न बनाना चाहिए और कर्मेन्द्रिय को धूलि, मिट्टी, रेता और जल स्पर्श से कठोर, पुष्ट और शुद्ध, द्वन्द्व-सहिष्णु बनाना चाहिए। राजा के पक्ष में—राजा (अप्सराभ्यः) प्रजाओं को घृत आदि स्निग्ध एवं पुष्टिकारक पदार्थ अनायास प्राप्त करावे। और अक्ष = अपने चर-पुरुषों को भूमि के स्थलों में, मरुओं में और जल प्रदेशों में कार्य के लिए भेजे। इस प्रकार समस्त राष्ट्रवासी लोग देवतुल्य रहकर अपने अधिकार के सदृश अपना वेतन भोगते हुए आनन्द प्रसन्न रहें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बादरायणिर्ऋषिः। अग्निमन्त्रोक्ताश्च देवताः। १ विराट् पुरस्ताद् बृहती अनुष्टुप्, ४, ७ अनुष्टुभौ, २, ३, ५, ६ त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Management

    Meaning

    O Agni, leading light of life, bring smoothness into the dynamics of life’s progress, bring waters, living vitalities like pollen grains to the flowers. The Devas, divinities of nature and brilliant nobilities of humanity, rejoice, loving to give as well as take their share of the yajnic programme, both light and smoke, according to their place in Dharma.

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    Translation

    O fire, may you carry purified butter for them who move in Clouds; for the gamblers (may you Carry) dust, sand and water. Let the enlightened ones, who enjoy their allotted shares of oblations, revel (madanti) with both these offerings.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.114.2AS PER THE BOOK

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    Translation

    O learned man! you obtain light from apasaras the electricities, atoms, sands and waters, from the worldly objects. The physical forces of the universe embracing the essence of the oblations offered in fire of yajna, grasp to the both oblations apportioned or not apportioned to them.

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    Translation

    O Brahmchari blazing like fire, bestow knowledge to the organs of cognition, and space, sand and water to the organs of action. The organs delight in both kinds of food, joying in receiving their share of food apportioned duly.

    Footnote

    Organs of cognition require knowledge, but organs of action stand in need of water, sand, earth and material objects to work upon. Both oblations: the butter produced from the milk of cattle, and the juices of herbs. Each organ gets due share of the food we eat.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(घृतम्) सारपदार्थम् (अप्सराभ्यः) अ० २।२।३। अप्सु प्रजासु सरणशीलाभ्यो व्यापिकाभ्यः शक्तिभ्यः (वह) द्विकर्मकः। प्रापय (त्वम्) (अग्ने) विद्वन् पुरुष (पांसून्) अर्जिदृशिकम्यमिपंसि०। उ० १।२७। इति पसि नाशने-कु, दीर्घश्च। पांसवः पादैः सूयन्त इति वा, पन्ना शेरत इति वा पंसनीया भवन्तीति वा-निरु० १२।१९। धूलिकणान्। भूमिस्थलानीत्यर्थः (अक्षेभ्यः) अ० ६।७०।१। व्यवहारान् साधितुम् (सिकताः) पृषिरञ्जिभ्यां कित्। उ० ३।१११। सिक सेचने-अतच्, स च कित्। सेचनसमर्थाः (अपः) जलानि (च) (यथाभागम्) भागमनतिक्रम्य (हव्यदातिम्) हव्यानां ग्राह्यपदार्थानां दानम् (जुषाणाः) सेवमानाः (मदन्ति) आनन्दयन्ति (देवाः) विद्वांसः (उभयानि) वलिमलितनिभ्यः कयन्। उ० ४।९९। इति उभ पूरणे-कयन्। पूर्णानि (हव्या) ग्राह्यवस्तूनि ॥

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