अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 5
एमं य॒ज्ञमनु॑मतिर्जगाम सुक्षे॒त्रता॑यै सुवी॒रता॑यै॒ सुजा॑तम्। भ॒द्रा ह्यस्याः॒ प्रम॑तिर्ब॒भूव॒ सेमं य॒ज्ञम॑वतु दे॒वगो॑पा ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । अनु॑ऽमति: । ज॒गा॒म॒ । सु॒ऽक्षे॒त्रता॑यै । सु॒ऽवी॒रता॑यै । सुऽजा॑तम् । भ॒द्रा । हि । अ॒स्या॒: । प्रऽम॑ति: । ब॒भूव॑ । सा । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । अ॒व॒तु॒ । दे॒वऽगो॑पा ॥२१.५॥
स्वर रहित मन्त्र
एमं यज्ञमनुमतिर्जगाम सुक्षेत्रतायै सुवीरतायै सुजातम्। भद्रा ह्यस्याः प्रमतिर्बभूव सेमं यज्ञमवतु देवगोपा ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इमम् । यज्ञम् । अनुऽमति: । जगाम । सुऽक्षेत्रतायै । सुऽवीरतायै । सुऽजातम् । भद्रा । हि । अस्या: । प्रऽमति: । बभूव । सा । इमम् । यज्ञम् । अवतु । देवऽगोपा ॥२१.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्यों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(अनुमतिः) अनुमति [अनुकूल बुद्धि] (सुजातम्) बहुत प्रसिद्ध (इमम्) इस (यज्ञम्) हमारे यज्ञ [संगति व्यवहार] में (सुक्षेत्रतायै) अच्छी भूमियों और (सुवीरतायै) साहसी वीरों की प्राप्ति के लिये (आ जगाम) आई है। और (अस्याः) इसकी (हि) ही (प्रमतिः) अनुग्रह बुद्धि (भद्रा) कल्याणी (बभूव) हुई है, (सा) वही (देवगोपा) विद्वानों की रक्षिका [अनुमति] (इमम्) इस (यज्ञम्) हमारे यज्ञ [पूजनीय व्यवहार] की (अवतु) रक्षा करे ॥५॥
भावार्थ
जिस प्रकार मनुष्य वेदद्वारा सत्यज्ञान पाकर चक्रवर्ती राज्य और उत्साही वीरों के पराक्रम से सुखवृद्धि करते रहें, वैसे ही मनुष्य अनुकूल मति से प्रतिकूल बुद्धि छोड़कर सदा सुखी रहें ॥५॥
टिप्पणी
५−(इमम्) क्रियमाणम् (यज्ञम्) संगतिव्यवहारम् (अनुमतिः) अनुकूला बुद्धिः (आ जगाम) प्राप (सुक्षेत्रतायै) शोभनानां भूमीनां प्राप्तये (सुवीरतायै) उत्साहिनां वीराणां लाभाय (सुजातम्) सुप्रसिद्धम् (भद्रा) कल्याणी (अस्याः) अनुमतेः (प्रमतिः) अनुग्रहबुद्धिः (बभूव) (सा) अनुमतिः (इमम्) (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (अवतु) रक्षतु (देवगोपा) आयादयः आर्धधातुके वा। पा० ३।१।३१। इत्यायप्रत्ययस्य वैकल्पिकत्वात् देव+गुपू रक्षणे-अच्, टाप्। विदुषां गोप्त्री रक्षित्री ॥
विषय
सुक्षेत्रतायै-सुवीरतायै
पदार्थ
१. (अनुमतिः) = अनुकूल बुद्धि (इमम्) = इस (सुजातम्) = मन्त्रों व द्रव्यों से सुष्टु निष्पन्न (यज्ञम्) = यज्ञ को (आजगाम) = प्राप्त होती है। अनुमति के होने पर हम इन यज्ञों को सम्यक्तया करते हैं। परिणामतः (सुक्षेत्रतायै) = ये यज्ञ हमारे क्षेत्रों की उत्तमता के लिए होते है और (सुवीरतायै) = उत्तम वीर सन्तानों के लिए होते हैं । २. (अस्याः) = इस अनुमति की (प्रमति:) = प्रकृष्ट बुद्धि (हि) = निश्चय से भद्रा बभूव कल्याणकारिणी होती है। (सा) = वह (देवगोपा) = दिव्य भावों का रक्षण करनेवाली बुद्धि (इमं यज्ञं अवतु) = इस यज्ञ का रक्षण करे। अनुमति हमें सदा यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रेरित किये रक्खे।
भावार्थ
अनुमति हमें सम्यक सम्पन्न किये जानेवाले यज्ञों में प्रवृत्त करे, उनसे हमारे क्षेत्र उत्तम हों, हमें उत्तम सन्तान प्राप्त हो। यह अनुमति दिव्य भावों का रक्षण करती हुई हमें यज्ञ में प्रवृत्त करे।
भाषार्थ
(इमम्, यज्ञम्) इस गृहस्थ यज्ञ में (अनुमतिः) अनुकूलमति वाली पत्नी (आ जगाम) आई है, जो गृहस्थ-यज्ञ (सुक्षेत्रतायै सुवीरतायै) सुक्षेत्रपन के लिये और उत्तम वीरता के लिये (सुजातम्) उत्तम [विवाह विधि से] पैदा हुआ है। (अस्याः) इस अनुमति की (भद्रा) सुखप्रदा तथा कल्याणकारी (प्रमतिः) शोभना मति (हि) निश्चय (बभूव) प्रकट हुई है। (सा) वह अनुमति पत्नी (देवगोपा) पति के माता, पिता आदि देवों द्वारा सुरक्षित हुई (इमम्, यज्ञम्) इस गृहस्थ-यज्ञ की (अवतु) रक्षा करे।
टिप्पणी
["सुक्षेत्रतायै" क्षेत्रों अर्थात् सन्तानों के उत्तम शरीर पैदा करने के लिये तथा उन शरीरों में वीरता प्रदान करने के लिये। अनुमति पत्नी के ये दो कर्तव्य दर्शाए हैं। क्षेत्र हैं शरीर यथा “इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते" (गीता १३।१)। शरीरों को सुक्षेत्र बना कर उनमें सद्गुणरूपी बीज बोने चाहिये, और वीरता की भावनाएं भरनी चाहिये। देव हैं विवाहित अनुमति के श्वशुर आदि।]
विषय
‘अनुमति’ नाम सभा का वर्णन।
भावार्थ
पुनः पत्नी का ही वर्णन करते हैं। (इमम् यज्ञम्) इस गृहस्थ रूप यज्ञ को जिसमें पति और पत्नी प्रेम से संगत होते हैं, (अनु-मतिः) अनुकूल चित्तवाली स्त्री, (सु क्षेत्रतायै) अपने उत्तम क्षेत्र को सफल करने के लिये और (सु-वीरतायै) उत्तम पुत्र उत्पन्न करने के लिए (आ जगाम) प्राप्त हो। तभी (सु-जातम्) यह यज्ञ उत्तम रीति से सुसम्पन्न होता है। (अस्याः) इस स्त्री का वह गृहस्थ के सम्पादन करने का (प्र-मतिः) श्रेष्ठ विचार (हि) निश्चय से (भद्रा बभूव) बड़ा कल्याणकारी होता है। (सा) वह स्त्री अवश्य (इमम्) इस (यज्ञम्) गृहस्थ रूप श्रेष्ठ यज्ञ की (देवगोपा) विद्वानों और राजाधिकारियों वा पतिद्वारा सुरक्षित रहकर (अवतु) रक्षा करे। राष्ट्रपक्ष में सभा राजा और राष्ट्र के अधिकारी कार्यकर्त्ताओं के लिए क्षेत्र तैयार करे और उत्तम वीर कार्यकर्त्ता तैयार करे, उत्तम कल्याणकारी विचार और कार्य करने की स्कीम तैयार करे और यज्ञ = राष्ट्र की रक्षा करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। अनुमतिर्देवता। १, २ अनुष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्। ४ भुरिक्। ५, ६ अतिशक्वरगर्भा अनुष्टुप्। षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Consensus and consent
Meaning
To this yajna of our union nobly performed, Anumati, spirit of union of thought, word and action, has come for the glory of a noble social order of the brave blest with honour and excellence. Noble and holy is her providence and prospect. So may she, protector and promoter of the divines, protect, promote and exalt this yajna of our life, our home and our social order.
Translation
The assent (of the Lord) has come to this well-conceived sacrifice for making our fields rich and our sons brave. Benign has been her care for us. May she, the protector of the enlightened ones(devagopa), protect this sacrifice.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.21.5AS PER THE BOOK
Translation
This Anumati, the full-moon night comes to this our well-performed yajna for making the land fertile and making the people enthusiastic as its arrival in time of a fortnight is beneficial to all and this Anumati which is preserved by the Sun-beam be the source of protecting this yajna.
Translation
May a well-disposed woman enter this domestic life to fulfill her desired aim and bless us with valiant sons. Thus does this domestic life succeed. Her noble thought certainly blesses us. God-protected, may she assist this domestic Yajna.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(इमम्) क्रियमाणम् (यज्ञम्) संगतिव्यवहारम् (अनुमतिः) अनुकूला बुद्धिः (आ जगाम) प्राप (सुक्षेत्रतायै) शोभनानां भूमीनां प्राप्तये (सुवीरतायै) उत्साहिनां वीराणां लाभाय (सुजातम्) सुप्रसिद्धम् (भद्रा) कल्याणी (अस्याः) अनुमतेः (प्रमतिः) अनुग्रहबुद्धिः (बभूव) (सा) अनुमतिः (इमम्) (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (अवतु) रक्षतु (देवगोपा) आयादयः आर्धधातुके वा। पा० ३।१।३१। इत्यायप्रत्ययस्य वैकल्पिकत्वात् देव+गुपू रक्षणे-अच्, टाप्। विदुषां गोप्त्री रक्षित्री ॥
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