अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - जातवेदाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सपत्नीनाशन सूक्त
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परं॒ योने॒रव॑रं ते कृणोमि॒ मा त्वा॑ प्र॒जाभि भू॒न्मोत सूनुः॑। अ॒स्वं त्वाप्र॑जसं कृणो॒म्यश्मा॑नं ते अपि॒धानं॑ कृणोमि ॥
स्वर सहित पद पाठपर॑म् । योने॑: । अव॑रम् । ते॒ । कृ॒णो॒मि॒ । मा । त्वा॒ । प्र॒ऽजा । अ॒भि । भू॒त् । मा । उ॒त । सूनु॑: । अ॒स्व᳡म् । त्वा॒ । अप्र॑जसम् । कृ॒णो॒मि॒ । अश्मा॑नम् । ते॒ । अ॒पि॒ऽधान॑म् । कृ॒णो॒मि॒ ॥३६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
परं योनेरवरं ते कृणोमि मा त्वा प्रजाभि भून्मोत सूनुः। अस्वं त्वाप्रजसं कृणोम्यश्मानं ते अपिधानं कृणोमि ॥
स्वर रहित पद पाठपरम् । योने: । अवरम् । ते । कृणोमि । मा । त्वा । प्रऽजा । अभि । भूत् । मा । उत । सूनु: । अस्वम् । त्वा । अप्रजसम् । कृणोमि । अश्मानम् । ते । अपिऽधानम् । कृणोमि ॥३६.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा और प्रजा के कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे राजन् !] (ते) तेरे (योनेः) घर के (परम्) शत्रु को (अवरम्) नीच (कृणोमि) बनाता हूँ, (त्वा) तुझको (मा) न तो (प्रजा) प्रजा भृत्य आदि (उत) और (मा) न (सूनुः) पुत्र (अभि भूत्) तिरस्कार करे। (त्वा) तुझको (अस्वम्) बुद्धिमान् और (अप्रजसम्) अताड़नीय पुरुष (कृणोमि) मैं करता हूँ और (ते) तेरे (अपिधानम्) ओढ़ने [कवच] को (अश्मानम्) पत्थरसमान दृढ़ (कृणोमि) मैं बनाता हूँ ॥३॥
भावार्थ
बुद्धिमान्, बलवान्, दृढ़स्वभाव राजा ऐसी सुनीति का प्रचार करे कि उससे उसकी प्रजा और सन्तान में फूट न पड़े, किन्तु सब प्रीतिपूर्वक रहें ॥३॥
टिप्पणी
३−(परम्) शत्रुम् (योनेः) गृहस्य (अवरम्) अधमम् (ते) तव (कृणोमि) करोमि (मा) निषेधे (त्वा) राजानम् (प्रजा) भृत्यादिः (अभिभूत्) अभिभवेत्। तिरस्कुर्यात् (मा) निषेधे (उत) अपि (सूनुः) पुत्रः (अस्वम्) असु-अर्शआद्यच्। असुः प्रज्ञाः-निघ० ३।९। प्रज्ञावन्तम् (त्वा) राजानम् (अप्रजसम्) जसु हिंसायां ताडने च-पचाद्यच्। अताडनीयम् बलवन्तम् (कृणोमि) (अश्मानम्) पाषाणवद् दृढम् (ते) तव (अपिधानम्) संवरणम्। कवचम् ॥
विषय
अस्वं, अप्रजसम, अश्मानम्
पदार्थ
१. (ते योने: परम्) = तेरे घर के पराये, अर्थात् शत्रु को (अवरं कृणोमि) = नीचे करता है, अर्थात् उसे तेरे पादाक्रान्त करता हूँ। (त्वा प्रजा मा अभिभूत) = तुझे तेरी कोई पुत्री अभिभूत करनेवाली न हो, (उत मा सूनः) और न कोई पुत्र अभिभूत करे, अर्थात् सन्तानें तेरी विधेय [आज्ञानुसारिणी] हों। २. मैं (त्वा) = तुझे (अस्वम्) = [असुः प्रज्ञा-नि० ३।९] प्रज्ञावाली ब (अप्र-जसम्) = [जसु हिंसायाम्] अहिंसनीय-वासनाओं से अनाक्रमणीय (कृणोमि) = करता हूँ तथा (ते अपिधानम्) = तेरे 'इन्द्रियों, मन,बुद्धि व प्राणों के आवरणभूत इस शरीर को (अश्मानम्) = पत्थर के समान दृढ़ (कृणोमि) = करता हूँ। तुझे 'बुद्धिमती, पवित्रहदय व दृढ़शरीर' बनाता हूँ।
भावार्थ
हमारे घर शत्रुओं के वशीभूत न हों। हमारे पुत्र-पुत्री सब विधेय-आज्ञाकारी हों। हम प्रज्ञावाले, वासनाओं से अहिंसित व दृढ़ शरीरवाले बनें।
भाषार्थ
(ते) तेरी (योनेः) योनि के (परम्) पहले भाग को (अवरम्) नीचे की भोर (कृणोमि) मैं करता हूं, [इस प्रकार] (त्वा अभि) तुझे लक्ष्य करके (मा प्रजा भूत्) न कन्या हो, (उत) और (मा सूनुः) न पुत्र हो। (त्वा) तुझे (अस्वम्) प्रसूतिरहित (अप्रजसम्) अर्थात् प्रजारहित (कृणोमि) मैं करता हूं: (अश्मानं ते अपिधानं कृणोमि) तेरे मार्ग को मैं बन्द कर देता हूं जैसे कि पत्थर द्वारा बिल को बन्द कर दिया जाता है। मन्त्र २,३ में "ते" पद एकवचन में है। इसलिये जो कोई नारी सन्तान प्रतिबन्ध चाहे उसके लिये इन प्रयोगों का विधान हुआ है, अनिच्छुक पर नहीं। योनि के पैन्दे और योनि के मुख के व्यत्यास में पौरुषप्रसङ्ग नहीं हो सकता। ये प्रयोग, अल्पकालिक भी हो सकते हैं, और स्थिर भी। अपिधानम्= पिधानम्, बन्द करना१]।
टिप्पणी
[१. गर्भपात धर्मविरुद्ध है। परन्तु राष्ट्रिय आवश्यकता, महिमा और व्यक्ति के स्वास्थ्य की दृष्टि से सन्तान-निरोध अनुपादेय नहीं। अपितु उपादेय है। सन्तान निरोध के लिये ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ उपाय है।]
विषय
शत्रु पराजय की प्रार्थना।
भावार्थ
(ते) तेरे (योनेः) पद, स्थान या आश्रम के (परं) उत्कृष्ट, सबसे उन्नत पदको मैं प्रजा का मुख्य प्रतिनिधि (अवरम्) कुछ नीचा (कृणोमि) करता हूं और फिर भी (त्वा) तुझे (प्र-जा) प्रजा (उत) और (सूनुः) तेरा पुत्र अथवा तेरा प्रेरक मन्त्री आदि भी (मा त्वा अभि भूत्) तेरा तिरस्कार न करे। (त्वा) तुझको मैं (अ-स्वं) स्व=धन से रहित और (अ-प्रजसं) प्रजा पुत्र आदि से रहित (कृणोमि) करता हूं। (ते) तेरे (अपि-धानम्) चारों तरफ का आवरण (अश्मानं) पत्थर का (कृणोमि) बनाता हूं। राजा की सर्वोत्कृष्ट पदवी पुरोहित से नीचे रहे। प्रजा मंत्री और राजकुमार आदि राजा का अपमान न करें। राजा का अपना कोई धन या जायदाद नहीं। प्रजा और राष्ट्र ही उसकी सार्वजनिक जायदाद है। उसका पुत्र कोई उसका निजी पुत्र नहीं, प्रत्युत वह भी उसकी सामान्य प्रजा के समान है। वह राजा का पुत्र होने से राज्य का स्वामी नहीं हो सकता। राजा का पुत्र राजा नहीं यह एक पत्थर के समान दृढ़ या अभेद्य है अर्थात् यह नियम खूब कठोर होना चाहिये। २, ३ इन दोनों मन्त्रों को सायण ने प्रद्वेषिणी स्त्री के गर्भ-निरोध-परक लगाया है। ग्रीफिथ ने इन दोनों मन्त्रों को अश्लील जानकर अर्थ नहीं किया। परन्तु अथर्व सर्वानुक्रमणी के अनुसार इन दोनों का देवता पूर्वमन्त्रानुसार ‘जातवेदाः’ [ राजा ] है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। जातवेदा देवता। १ जगती छन्दः। २, ३ त्रिष्टुभौ। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Noble Social Order
Meaning
Whatever is beyond your seat of being and governance I bring into the reach of the Rashtra, so that neither the people nor their children of the rising generation may ever fall foul of you. Thus I make you free from all selfish interest and from familial favouritism and give you a corselet of steel for defence of your person and the commonwealth against all odds from within and from without.
Translation
What is far from your womb, that I bring close to it. May not the progeny, nor even the Sun over-whelm you. I make you have an offspring overflowing with life. I make the stone your mattress (apidhainam).
Comments / Notes
MANTRA NO 7.36.3AS PER THE BOOK
Translation
I, the representative of the subject make your high rank a little lower but in spite of that the subject, or the son of yours cannot lower your position. I make you wise and unassailable. I guard you with the cover of stone—(I guard you in the fort of stone).
Translation
I lower thy exalted position. Let not thy subjects or thy son be disrespectful to thee O King I make thee wise and strong. I make thy armor hard like a stone!
Footnote
Griffith has not translated the second and third verses, taking them to be vulgar and obscene. Sayana has interpreted these verses for a spiteful woman to deprive her of the power of procreation and make her barren. The interpretation given by me is clear. I refers to the Purohit whose position is higher than that of the King.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(परम्) शत्रुम् (योनेः) गृहस्य (अवरम्) अधमम् (ते) तव (कृणोमि) करोमि (मा) निषेधे (त्वा) राजानम् (प्रजा) भृत्यादिः (अभिभूत्) अभिभवेत्। तिरस्कुर्यात् (मा) निषेधे (उत) अपि (सूनुः) पुत्रः (अस्वम्) असु-अर्शआद्यच्। असुः प्रज्ञाः-निघ० ३।९। प्रज्ञावन्तम् (त्वा) राजानम् (अप्रजसम्) जसु हिंसायां ताडने च-पचाद्यच्। अताडनीयम् बलवन्तम् (कृणोमि) (अश्मानम्) पाषाणवद् दृढम् (ते) तव (अपिधानम्) संवरणम्। कवचम् ॥
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