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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अदितिः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - अदिति सूक्त
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    म॒हीमू॒ षु मा॒तरं॑ सुव्र॒ताना॑मृ॒तस्य॒ पत्नी॒मव॑से हवामहे। तु॑विक्ष॒त्राम॒जर॑न्तीमुरू॒चीं सु॒शर्मा॑ण॒मदि॑तिं सु॒प्रणी॑तिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हीम् । ऊं॒ इति॑ । सु । मा॒तर॑म् । सु॒ऽव्र॒ताना॑म् । ऋ॒तस्य॑ । पत्नी॑म् । अव॑से । ह॒वा॒म॒हे॒ । तु॒वि॒ऽक्ष॒त्राम् । अ॒जर॑न्तीम् । ऊ॒रू॒चीम् । सु॒ऽशर्मा॑णम् । अदि॑तिम् । सु॒ऽप्रनी॑तिम् ॥६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महीमू षु मातरं सुव्रतानामृतस्य पत्नीमवसे हवामहे। तुविक्षत्रामजरन्तीमुरूचीं सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महीम् । ऊं इति । सु । मातरम् । सुऽव्रतानाम् । ऋतस्य । पत्नीम् । अवसे । हवामहे । तुविऽक्षत्राम् । अजरन्तीम् । ऊरूचीम् । सुऽशर्माणम् । अदितिम् । सुऽप्रनीतिम् ॥६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पृथ्वी के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    (महीम्) पूजनीय, (मातरम्) माता [के समान हितकारिणी], (सुव्रतानाम्) सुकर्मियों के (ऋतस्य) सत्यधर्म की (पत्नीम्) रक्षा करनेवाली, (तुविक्षत्राम्) बहुत बल वा धनवाली, (अजरन्तीम्) न घटनेवाली, (उरूचीम्) बहुत फैली हुई, (सुशर्म्माणम्) उत्तम घर वा सुखवाली, (सुप्रणीतिम्) बहुत सुन्दर नीतिवाली (अदितिम्) अदिति, अदीन पृथ्वी को (उ) ही (अवसे) अपनी रक्षा के लिये (सु) अच्छे प्रकार (हवामहे) हम बुलाते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य पृथिवी के गुणों में चतुर होते हैं, वे ही राज्य भोगने, बल और धन बढ़ाने, धार्मिक नीति चलाने और प्रजा पालने आदि शुभगुणों के योग्य होते हैं ॥२॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजु० में है, २१।५ ॥

    टिप्पणी

    २−(महीम्) महतीम् (उ) अवधारणे (सु) सुष्ठु। सत्कारेण (मातरम्) मातृसमानहिताम् (सुव्रतानाम्) शोभनकर्मवताम् (ऋतस्य) सत्यधर्मस्य (पत्नीम्) पालयित्रीम् (अवसे) रक्षणाय (हवामहे) आह्वयामः (तुविक्षत्राम्) बहुबलां बहुधनाम् (अजरन्तीम्) अजराम् (उरूचीम्) अ० ३।३।१। बहुविस्तारगताम् (सुशर्म्माणम्) उत्तमगृहयुक्ताम्। बहुसुखवतीम् (अदितिम्) अ० २।२८।४। अदीनां पृथिवीम्-निघ० १।१। (सुप्रणीतिम्) सुष्ठु प्रकृष्टनीतियुक्ताम् ॥

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    विषय

    तुविक्षत्रा-सुप्रणीति

    पदार्थ

    १. इस (महीम्) = महती व महनीया, (सुव्रतानां मातरम्) = शोभनकर्मा पुरुषों की मातृस्थानीया, (ऋतस्य पत्नीम्) = सत्य व यज्ञ की पालयित्री, (उ) = और (तुविक्षत्राम्) = बहुत बल व धनवाली, (अजरन्तीम्) = क्षीण न करनेवाली, (उरूचीम्) = बहुत दूर तक गई हुई, विशाल, (सुशर्माणम्) = उत्तम सुख देनेवाली, (सुप्रणीतिम्) = सुख से कर्मों का प्रणयन करनेवाली (अदितिम्) = अखण्डनीया व अन्नों को देनेवाली [अद्] इस पृथिवी को (अवसे) = रक्षण के लिए (सुहवामहे) = उत्तमता से पुकारते हैं।

    भावार्थ

    यह भूमिमाता यज्ञों का पालन करनेवाली व हमें क्षीण न होने देनेवाली हैं। उत्तम सुख को प्राप्त करानेवाली व सम्यक् कर्मों का प्रणयन करनेवाली है।

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    भाषार्थ

    (महीम्) पूजनीया (सुव्रतानाम् मातरम्) उत्तम-व्रतों वालों की माता (ऋतस्य) सत्य की (पत्नीम्) पालयित्री पालन करने वाली, (तुविक्षत्राम्) बहुविध धनों की स्वामिनी (अजरन्तीन्) न जीर्ण होने वाली या जरा रहित, (उरूचीम्) विस्तृत आकाश में व्याप्त, (सुशर्माणम्) उतम-सुख मे सम्पन्न या (ऊषु) उत्तम-आश्रयरूप (सुप्रणीतिम्) उत्तम प्रणय वाली (अदितिम्) अदीना या अक्षीणा देवमाता का (अवसे) निजरक्षार्थ (सुहवामहे) हम उत्तम प्रकार भक्ति पूर्वक आह्वान करते हैं।

    टिप्पणी

    [महीम्– मह पूजायाम् (भ्वादिः)। ऋतम् सत्यनाम (निघं० ३।१०)। तुवि वहुनाम (निघं० ३।१)। क्षत्रम् धननाम (निघं० २।१०)। उरूचीम्= उरु+अञ्च् गतौ। शर्म सुखनाम (निघं ३।५) तथा गृहनाम (निघं० ३।४)। अदितिः = अ + दीङ् क्षये (दिवादिः) + क्तिन्। प्रणय= प्रेम अदितिम्= मन्त्र में अदिति द्वारा अक्षीणा देवमाता पारमेश्वरी माता अभिप्रेत है]।

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    विषय

    आत्मज्ञान का उपदेश।

    भावार्थ

    ब्रह्म की ज्ञानमयी, वेदमयी नौका या भवतारिणी शक्ति का वर्णन करते हैं। (सु-व्रतानाम्) उत्तम पुण्यकर्मों की (महीम्) पूजनीय, (मातरम्) उत्पन्न करने वाली, (ऋतस्य पत्नीम्) महत्,यज्ञ, सत्य और ज्ञानका पालन करने वाली, (तुवि-क्षत्राम्) बहुत प्रकार से क्षति से बचाने वाली, बहुत धन धीर बल से युक्त, (सु-प्रणीतिम्) उत्तम रूप से व्यवस्था करने और शुभ मार्ग में ले जाने वाली (सु-शर्माणम्) शुभ सुख देनेहारी, (उरुचीम्) विशाल ब्रह्म में व्यापक, (अजरन्तीम्) नित्य, अविनश्वर, (अदितिम्) अदीन, सदा नवीन, अखण्डित, सत्यमयी वेदवाणी अदिति को हम अपनी (अवसे) रक्षा के निमित्त (हवामहे) स्मरण करते हैं उसका मनन,निदिध्यासन करते हैं।

    टिप्पणी

    ‘हुवेम’ इति यजु०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यजुर्वेदे १ प्रजापतिर्ऋषिः, २ वामदेवः। ऋग्वेदे गोतमो । राहूगण ऋषिः। अदितिर्देवता । त्रिष्टुप्। १ भुरिक्। ३, ४ विराड्-जगत्यौ। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Imperishable Mother, Nature

    Meaning

    Note: Here starts an alternative numbering of suktas. Sukta 6 has four mantras in one order which is here continued. In another order sukta 6 has two mantras, which have been translated. After these two, mantras 3 and 4 are numbered as Sukta 7, mantras 1 and 2. We continue the numbering as before and give the alternative numbeing in brackets after the mantra. So mantra 3 that now follows will be numbered as (7, 1) at the end of the translation, and similarly the alternative sukta numbers will be written in brackets.

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    Translation

    We invoke for protection the creative power (aditi), the mother of good actions, the sustainer of eternal law, full of great dominating power, never-exhausting, spreading far and wide, full of comforts and conducting wisely.

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    Translation

    We pray for our safety the Unimpaired Divine Power who is adorable by all, the mother of all the virtues, the custodian of law eternal, All-power, Ever-mature, All-pervading, All-beatitude and the Ideal of all moral norms.

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    Translation

    We call to protect us, the unimpaired, true Vedic speech, the venerable mother of those who stick steadfastly to their vow, the rearer of truth, full of wealth and strength, free from decay, pervaded in the Almighty God, the bestower of joy, and the guide of mankind on the right path.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(महीम्) महतीम् (उ) अवधारणे (सु) सुष्ठु। सत्कारेण (मातरम्) मातृसमानहिताम् (सुव्रतानाम्) शोभनकर्मवताम् (ऋतस्य) सत्यधर्मस्य (पत्नीम्) पालयित्रीम् (अवसे) रक्षणाय (हवामहे) आह्वयामः (तुविक्षत्राम्) बहुबलां बहुधनाम् (अजरन्तीम्) अजराम् (उरूचीम्) अ० ३।३।१। बहुविस्तारगताम् (सुशर्म्माणम्) उत्तमगृहयुक्ताम्। बहुसुखवतीम् (अदितिम्) अ० २।२८।४। अदीनां पृथिवीम्-निघ० १।१। (सुप्रणीतिम्) सुष्ठु प्रकृष्टनीतियुक्ताम् ॥

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