अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 83/ मन्त्र 2
ऋषिः - शुनःशेपः
देवता - वरुणः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - पाशमोचन सूक्त
1
धाम्नो॑धाम्नो राजन्नि॒तो व॑रुण मुञ्च नः। यदापो॑ अ॒घ्न्या इति॒ वरु॒णेति॒ यदू॑चि॒म ततो॑ वरुण मुञ्च नः ॥
स्वर सहित पद पाठधाम्न॑:ऽधाम्न: । रा॒ज॒न् । इ॒त: । व॒रु॒ण॒ । मु॒ञ्च॒ । न॒: । यत् । आप॑: । अ॒घ्न्या: । इति॑ । वरु॑ण । इति॑ । यत् । ऊ॒चि॒म । तत॑: । व॒रु॒ण॒ । मु॒ञ्च॒ । न॒: ॥८८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
धाम्नोधाम्नो राजन्नितो वरुण मुञ्च नः। यदापो अघ्न्या इति वरुणेति यदूचिम ततो वरुण मुञ्च नः ॥
स्वर रहित पद पाठधाम्न:ऽधाम्न: । राजन् । इत: । वरुण । मुञ्च । न: । यत् । आप: । अघ्न्या: । इति । वरुण । इति । यत् । ऊचिम । तत: । वरुण । मुञ्च । न: ॥८८.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ईश्वर के नियम का उपदेश।
पदार्थ
(राजन्) हे राजन् ! (वरुण) हे सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर ! (इतः) इस (धाम्नोधाम्नः) प्रत्येक बन्धन से (नः) हमें (मुञ्च) छुड़ा। (यत्) जिस कारण से (आपः) यह प्राण (अघ्न्याः) न मारने योग्य गौ [के तुल्य] हैं, (इति) इस प्रकार से, (वरुण) हे सर्वोत्कृष्ट परमेश्वर ! (इति) इस प्रकार से, (यत्) जो कुछ (ऊचिम) हमने कहा है, [इसी कारण से] (वरुण) हे दुःखनिवारक ! (नः) हमें (ततः) उस [बन्धन] से (मुञ्च) छुड़ा ॥२॥
भावार्थ
जो लोग परमात्मा को बन्धनमोचक जानकर विरुद्ध आचरण से गौ के समान अपने और पराये प्राणों की रक्षा करते हैं, वे हृदय की गाँठ खुल जाने से सदा आनन्दित रहते हैं ॥२॥ इस मन्त्र का उत्तरार्ध कुछ भेद से यजुर्वेद में है−२०।१८ ॥
टिप्पणी
२−(धाम्नोधाम्नः) म० १। वीप्सायां द्विर्वचनम्। प्रत्येकबन्धनात् (राजन्) (इतः) अस्मात् (वरुण) सर्वश्रेष्ठ (मुञ्च) (नः) अस्मान् (यत्) यस्मात् कारणात् (आपः) प्राणाः−दयानन्दभाष्ये यजु० २०।१८ (अघ्न्याः) अ० ३।३०।१। अहन्तव्या गावो यथा (इति) अनेन प्रकारेण (वरुण) सर्वोत्कृष्ट (इति) एवम् (यत्) यत् किञ्चित् (ऊचिम) ब्रूञ्-लिट्। वयं कथितवन्तः (ततः) तस्मात् क्लेशबन्धनात् (वरुण) दुःखनिवारक (मुञ्च) पृथक् कुरु (नः) अस्मान् ॥
विषय
आपः, अन्याः , वरुण
पदार्थ
१. हे (वरुण) = पापनिवारक प्रभो! (राजन्) = दीप्त प्रकाशमय प्रभो! आप (धाम्नः) = प्रत्येक स्थान से (इत: न: मुञ्च) = इस पापवृत्ति से हमें छुड़ाइए। हम 'शरीर, मन व बुद्धि' से किसी का हिंसन न करें। २. हे प्रभो! (यत्) = जब हम (आप:) = 'प्रभु सर्वव्यापक' है [अप व्याप्ती] (अध्याः इति) = ये वेदवाणियाँ, वेदधेनुएँ अहन्तव्य है, अथवा (वरुण इति यत् ऊचिम) = जो हम यह कहते हैं कि वे प्रभु पापनिवारक हैं' (ततः) = तब हे (वरुण) = पापनिवारक प्रभो! (न: मुञ्च) = हमें पाप से छुड़ाइए ही।
भावार्थ
प्रभु हमें प्रत्येक स्थान से निष्पाप बनाएँ। हम प्रभु को सर्वव्यापक जानें [आपः], वेदवाणियों को अहन्तव्य समझें [अध्याः], इनका प्रतिदिन स्वाध्याय करें तथा प्रभु का पापनिवारकरूप [वरुण] में स्मरण करें, इससे सब पापों से वरुणप्रभु हमें मुक्त करें।
भाषार्थ
(वरुण, राजन्) हे वरणीय राजा! (इतः) इस (धाम्नः, धाम्नः१) प्रत्येक स्थान से (नः) हमारे पाशों को (मुञ्च) खोल दे। (यद्) जो (आपः अघ्न्याः इति) व्यापक अनश्वर हे परमेश्वर ! इस प्रकार और (यद) जो (वरुण इति) हे वरणीय परमेश्वर ! इस प्रकार (ऊचिम) हमने तुझे पुकार है, (ततः) उस कारण (वरुण) हे वरणीय परमेश्वर ! (नः) हमारे पाशों को (मुञ्च) खोल दे।
टिप्पणी
[परमेश्वर तो पाशों के मोचन का व्रत धारण किये हुआ है, परन्तु व्यक्ति पाशों से मुक्त नहीं हुए, अतः वे परमेश्वर का आह्वान करके उसे पुकार कर कहते हैं कि हमारे पाशों को खोल दें। मन्त्र में दो "इति द्वारा दो सम्बोधन प्रतीत होते हैं, (१) "आपः अघ्न्याः" (२) वरुण। तीन नहीं। "आपः, अघ्न्याः" पद विशेष्य-विशेषण रूप है। "आपः" हे व्यापक परमेश्वर आप्लृ व्याप्तौ; तथा "ताः आपः स प्रजापतिः" (यजु० ३२।२)। अघ्न्यः = न हन्तव्याः, अनश्वर परमेश्वर। पाण्डुलिपियों में "दाम्नः दाम्तः" भी पाठ है। जिसका अर्थ है प्रत्येक दाम से, रस्सी से पाश से।] [१. दाम्नोदाम्नः (पाठान्तर)।]
विषय
बन्धन-मोचन की प्रार्थना॥
भावार्थ
हे (राजन्) राजन् ! हे (वरुण) सर्वश्रेष्ठ प्रभो ! तू (धाम्नः धाम्नः) प्रत्येक बन्धन से (इतः) इस लोक में (नः) हमें (मुञ्च) मुक्त कर। (यद्) जब हम (ऊचिम) कहें कि (आपः) हे सर्वव्यापक तथा जल की तरह पवित्र करने वाले ! (अघ्न्या इति) हे अनश्वर ! (वरुण इति) तथा हे सर्वश्रेष्ठ प्रभो ! (ततः) तब हे (वरुण) हे प्रभो ! हमें (मुञ्च) मुक्त कर।
टिप्पणी
(प्र०) ‘धाम्नो धाम्नो राजस्ततो वरुण नो मुञ्च। यदाहुरघ्न्या इति वरुणेति शपामहे ततो वरुण नो मुञ्च॥’ इति यजुषि तैत्तिरीये, आश्व०, शां०, लाटया० श्रौतसूत्रेषु च॥ यजुर्वेदेऽस्य दीर्घतमा ऋषिः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनः शेप ऋषिः। वरुणो देवता। १ अनुष्टुप्। २ पथ्यापंक्तिः, ३ त्रिष्टुप्, ४ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Bondage
Meaning
O Varuna, all ruling refulgent lord, release us from the bonds here, there and everywhere. As we say Varuna is Apah, always with us, inviolable, and the lord of our love and choice, so, O Varuna, destroyer of suffering, pray release us.
Translation
From each and every place of bondage, O king, the venerable Lord, may you release us here. As we have declared that the waters and the venerable Lord are inviolable, for that reason, O venerable Lord, may you release us. (Also Yv. VI.22)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.88.2AS PER THE BOOK
Translation
O All adorable Ruling Lord! Please set us free from each successive bond and tie of this world and of this body as we declare that apah, the all-pervading power of God are immortal and Varuna, the All-adorable God is the only object of our worship. O Varuna! loose my bonds of other world also.
Translation
O Resplendent, Most Exalted God, free us in this world, from all fetters. When we invoke Thee as All-pervading, Immortal, Most Dignified, free us, O God, from restraints!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(धाम्नोधाम्नः) म० १। वीप्सायां द्विर्वचनम्। प्रत्येकबन्धनात् (राजन्) (इतः) अस्मात् (वरुण) सर्वश्रेष्ठ (मुञ्च) (नः) अस्मान् (यत्) यस्मात् कारणात् (आपः) प्राणाः−दयानन्दभाष्ये यजु० २०।१८ (अघ्न्याः) अ० ३।३०।१। अहन्तव्या गावो यथा (इति) अनेन प्रकारेण (वरुण) सर्वोत्कृष्ट (इति) एवम् (यत्) यत् किञ्चित् (ऊचिम) ब्रूञ्-लिट्। वयं कथितवन्तः (ततः) तस्मात् क्लेशबन्धनात् (वरुण) दुःखनिवारक (मुञ्च) पृथक् कुरु (नः) अस्मान् ॥
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