ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
तं गू॑र्धया॒ स्व॑र्णरं दे॒वासो॑ दे॒वम॑र॒तिं द॑धन्विरे । दे॒व॒त्रा ह॒व्यमोहि॑रे ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । गू॒र्ध॒य॒ । स्वः॑ऽनरम् । दे॒वासः॑ । दे॒वम् । अ॒र॒तिम् । द॒ध॒न्वि॒रे॒ । दे॒व॒ऽत्रा । ह॒व्यम् । आ । ऊ॒हि॒रे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं गूर्धया स्वर्णरं देवासो देवमरतिं दधन्विरे । देवत्रा हव्यमोहिरे ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । गूर्धय । स्वःऽनरम् । देवासः । देवम् । अरतिम् । दधन्विरे । देवऽत्रा । हव्यम् । आ । ऊहिरे ॥ ८.१९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
विषय - स्तुति का विधान करते हैं ।
पदार्थ -
हे मनुष्यों ! (तम्) उस परमदेव की (गूर्धय) स्तुति कर जिसको (देवासः) मेधावीजन और सूर्य्यादि (दधन्विरे) प्रकाशित कर रहे हैं और जिस (हव्यम्) प्रणम्य देव को (देवत्रा) सर्व देवों अर्थात् पदार्थों में (आ+ऊहिरे) व्याप्त जानते हैं । वह कैसा है (स्वर्णरम्) सुख का और सूर्य्यादि देवों का नेता (देवम्) और देव है, पुनः वह (अरतिम्) विरक्त है, किन्हीं में आसक्त नहीं है ॥१ ॥
भावार्थ - ये सूर्यादि पदार्थ अपने अस्तित्व से अपने जनक ईश्वर को दिखला रहे हैं ॥१ ॥
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