ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 13
ऋषिः - देवातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
र॒थे॒ष्ठाया॑ध्वर्यव॒: सोम॒मिन्द्रा॑य सोतन । अधि॑ ब्र॒ध्नस्याद्र॑यो॒ वि च॑क्षते सु॒न्वन्तो॑ दा॒श्व॑ध्वरम् ॥
स्वर सहित पद पाठर॒थे॒ष्ठाय॑ । अ॒ध्व॒र्य॒वः॒ । सोम॑म् । इन्द्रा॑य । सो॒त॒न॒ । अधि॑ । ब्र॒ध्नस्य॑ । अद्र॑यः । वि । च॒क्ष॒ते॒ । सु॒न्वन्तः॑ । दा॒शुऽअ॑ध्वरम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
रथेष्ठायाध्वर्यव: सोममिन्द्राय सोतन । अधि ब्रध्नस्याद्रयो वि चक्षते सुन्वन्तो दाश्वध्वरम् ॥
स्वर रहित पद पाठरथेष्ठाय । अध्वर्यवः । सोमम् । इन्द्राय । सोतन । अधि । ब्रध्नस्य । अद्रयः । वि । चक्षते । सुन्वन्तः । दाशुऽअध्वरम् ॥ ८.४.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 13
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
विषय - अचेतन भी उसके महत्त्व को प्रसिद्ध करते हैं ।
पदार्थ -
(अध्वर्य्यवः) हे कर्म्मोपासको ! (रथेष्ठाय) अतिरमणीय संसाररूप रथ के ऊपर स्थित (इन्द्राय) परमात्मा के लिये (सोमम्+सोतन) शुद्ध पदार्थ उत्पन्न कीजिये । परमात्मा के उद्देश से सब वस्तु पवित्र बनाओ । उत्तर अर्धर्च से उसका महत्त्व दिखलाया जाता है । ये (अद्रयः) पर्वत आदि स्थावर पदार्थ रसनारहित होने पर भी (ब्रध्नस्य+अधि) पृथिवीरूप मूल के ऊपर स्थित होकर (दाश्वध्वरम्) आनन्दप्रद याग को (विचक्षते) प्रकाशित कर रहे हैं । पुनः (सुन्वन्तः) मानो मनुष्यवत् यज्ञ सम्पादन करते हुए दीखते हैं ॥१३ ॥
भावार्थ - ये स्थावर पर्वत आदि भी अध्वर्यु के समान मानो यज्ञ कर रहे, ईश्वर के महत्त्व दिखला रहे और उनके समान ही मानो, स्वोत्पन्न बहुत सी वस्तुएँ जगत् को दे रहे हैं । हे मनुष्यो ! तुम भी सर्व वस्तु को परमात्मा के उद्देश से प्रसिद्ध करो ॥१३ ॥
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