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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 14
    ऋषिः - देवातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    उप॑ ब्र॒ध्नं वा॒वाता॒ वृष॑णा॒ हरी॒ इन्द्र॑म॒पसु॑ वक्षतः । अ॒र्वाञ्चं॑ त्वा॒ सप्त॑योऽध्वर॒श्रियो॒ वह॑न्तु॒ सव॒नेदुप॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । ब्र॒ध्नम् । व॒वाता॑ । वृष॑णा । हरी॒ इति॑ । इन्द्र॑म् । अ॒पऽसु॑ । व॒क्ष॒तः॒ । अ॒र्वाञ्च॑म् । त्वा॒ । सप्त॑यः । अ॒ध्व॒र॒ऽश्रियः॑ । वह॑न्तु । सव॑ना । इत् । उप॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप ब्रध्नं वावाता वृषणा हरी इन्द्रमपसु वक्षतः । अर्वाञ्चं त्वा सप्तयोऽध्वरश्रियो वहन्तु सवनेदुप ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । ब्रध्नम् । ववाता । वृषणा । हरी इति । इन्द्रम् । अपऽसु । वक्षतः । अर्वाञ्चम् । त्वा । सप्तयः । अध्वरऽश्रियः । वहन्तु । सवना । इत् । उप ॥ ८.४.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 14
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 32; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (वावाता) अत्यन्त गमनशील (वृषणा) आनन्दवर्षाप्रद (हरी) प्रेम वा आकर्षण से वा अपने-२ प्रभाव से परस्पर हरण करते हुए स्थावर जङ्गम संसार (ब्रध्नम्) सर्व मूलकारण (इन्द्रम्) परमात्मा को (अपसु) हमारे सर्व कर्मों में (उप+वक्षतः) ले आवें अर्थात् प्रकाशित करें । तथा हे भगवन् ! (त्वा) तुझको (अर्वाञ्चम्) हम लोगों के अभिमुख करके (अध्वरश्रियः) यज्ञशोभाप्रद (सप्तयः) सर्पणशील इतर पदार्थ (सवनानि) यज्ञों में (उप+वहन्तु+इत्) अवश्य ले आवें अर्थात् प्रत्येक वस्तु में तेरी विभूति प्रकाशित हो । इति ॥१४ ॥

    भावार्थ - द्विविध जो ये स्थावर जङ्गमरूप संसार हैं, वे परस्पर में उपकारी हैं, आनन्दवर्षा करते हैं और वे ही परमात्मा के प्रकाश करने में समर्थ हैं । इससे यह उपदेश देते हैं कि तुम उस उपाय से शुभ कर्म करो और मन को वश में लाओ, जिससे तुम्हारे सर्व कर्मों में सब पदार्थ ईश की विभूति प्रकाशित कर सकें ॥१४ ॥

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