ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 16
ऋषिः - देवातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः पूषा वा
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
सं न॑: शिशीहि भु॒रिजो॑रिव क्षु॒रं रास्व॑ रा॒यो वि॑मोचन । त्वे तन्न॑: सु॒वेद॑मु॒स्रियं॒ वसु॒ यं त्वं हि॒नोषि॒ मर्त्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । नः॒ । शि॒शी॒हि॒ । भु॒रिजोः॑ऽइव । क्षु॒रम् । रास्व॑ । रा॒यः । वि॒ऽमो॒च॒न॒ । त्वे इति॑ । तत् । नः॒ । सु॒ऽवेद॑म् । उ॒स्रिय॑म् । वसु॑ । यम् । त्वम् । हि॒नोषि॑ । मर्त्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं न: शिशीहि भुरिजोरिव क्षुरं रास्व रायो विमोचन । त्वे तन्न: सुवेदमुस्रियं वसु यं त्वं हिनोषि मर्त्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । नः । शिशीहि । भुरिजोःऽइव । क्षुरम् । रास्व । रायः । विऽमोचन । त्वे इति । तत् । नः । सुऽवेदम् । उस्रियम् । वसु । यम् । त्वम् । हिनोषि । मर्त्यम् ॥ ८.४.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 16
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
विषय - फिर इन्द्र की प्रार्थना करते हैं ।
पदार्थ -
हे इन्द्र ! (नः) हमको (सम्+शिशीहि) अच्छे प्रकार तीक्ष्ण बना (भुरिजोः+क्षुरम्+इव) जैसे नापित के हस्तस्थित क्षुर केशों को तीक्ष्ण बनाता है । तद्वत् । पुनः हे इन्द्र ! हमको (रायः) नाना प्रकार के धन (रास्व) दे । (विमोचन) हे समस्त दुःखों से छुड़ानेवाले इन्द्र ! (त्वम्) तू (यम्) जिस धनसमूह को (मर्त्यम्) मरणधर्मी मनुष्य के निकट (हिनोषि) भेजता है (तत्) वह धन (नः) हमको दीजिये (त्वे) जो हम तेरे अधीन हैं और जो धन (सुवेदम्) तेरे लिये सुलभ और (उस्रियम्) प्रकाश, गौ आदि वस्तु से युक्त है, उस धन को हमें दे ॥१६ ॥
भावार्थ - हे स्त्रियो तथा पुरुषो ! परमात्मा सर्वदुःखनिवारक है, यह अच्छी तरह निश्चय कर मन में उसको रख, उससे आशीर्वाद माँगते हुए सांसारिक कार्य्यों में प्रवेश करो । उससे सर्व मनोरथ पाओगे ॥१६ ॥
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