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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 17
    ऋषिः - देवातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः पूषा वा छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    वेमि॑ त्वा पूषन्नृ॒ञ्जसे॒ वेमि॒ स्तोत॑व आघृणे । न तस्य॑ वे॒म्यर॑णं॒ हि तद्व॑सो स्तु॒षे प॒ज्राय॒ साम्ने॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वेमि॑ । त्वा॒ । पू॒ष॒न् । ऋ॒ञ्जसे॑ । वेमि॑ । स्तोत॑वे । आ॒घृ॒णे॒ । न । तस्य॑ । वे॒मि॒ । अर॑णम् । हि । तत् । व॒सो॒ इति॑ । स्तु॒षे । प॒ज्राय॑ । साम्ने॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वेमि त्वा पूषन्नृञ्जसे वेमि स्तोतव आघृणे । न तस्य वेम्यरणं हि तद्वसो स्तुषे पज्राय साम्ने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वेमि । त्वा । पूषन् । ऋञ्जसे । वेमि । स्तोतवे । आघृणे । न । तस्य । वेमि । अरणम् । हि । तत् । वसो इति । स्तुषे । पज्राय । साम्ने ॥ ८.४.१७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 17
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (पूषन्) हे पोषक इन्द्र देव ! (ऋञ्जसे) तेरी प्रीति के साधन के लिये (त्वाम्) तुझको (वेमि) चाहता हूँ । (आघृणे) हे महाप्रकाशक ! (स्तोतवे) स्तुति करने के लिये (वेमि) तुझको ही मैं चाहता हूँ । (वसो) हे वासक इन्द्र ! (तस्य) आपको छोड़ अन्य सूर्य्यादि प्रसिद्ध देव के (तत्) स्तोत्र को (न+वेमि) नहीं चाहता हूँ अर्थात् अन्य देवों की स्तुति करना मैं नहीं चाहता (हि) क्योंकि (अरणम्) वह अरमणीय असुखकर है, इसलिये हे इन्द्र ! (स्तुषे) स्तुति करनेवाले (पज्रे) उद्योगशील और (साम्ने) सामगान करते हुए मुझको अभिलषित धन दे ॥१७ ॥

    भावार्थ - वही ईश सर्वपोषक और सर्वप्रकाशक है, अतः हे मेधाविगण ! उसी की प्रीति की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करो और अन्य देवों को छोड़ उसी की प्रार्थना करो । वह करुणालय तुमको सर्व क्लेश से दूर कर देगा ॥१७ ॥

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