ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 1
अग्न॒ आ या॑ह्य॒ग्निभि॒र्होता॑रं त्वा वृणीमहे । आ त्वाम॑नक्तु॒ प्रय॑ता ह॒विष्म॑ती॒ यजि॑ष्ठं ब॒र्हिरा॒सदे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । आ । या॒हि॒ । अ॒ग्निऽभिः॑ । होता॑रम् । त्वा॒ । वृ॒णी॒म॒हे॒ । आ । त्वाम् । अ॒न॒क्तु॒ । प्रऽय॑ता । ह॒विष्म॑ती । यजि॑ष्ठम् । ब॒र्हिः । आ॒ऽसदे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्न आ याह्यग्निभिर्होतारं त्वा वृणीमहे । आ त्वामनक्तु प्रयता हविष्मती यजिष्ठं बर्हिरासदे ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । आ । याहि । अग्निऽभिः । होतारम् । त्वा । वृणीमहे । आ । त्वाम् । अनक्तु । प्रऽयता । हविष्मती । यजिष्ठम् । बर्हिः । आऽसदे ॥ ८.६०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
विषय - प्रथम अग्नि नाम से परमात्मा की स्तुति करते हैं ।
पदार्थ -
(अग्ने) हे सर्वशक्ते सर्वाधार ईश ! (त्वा) तुझको ही (वृणीमहे) हम उपासक स्तुति, प्रार्थना, पूजा इत्यादि के लिये स्वीकार करते हैं । तू (अग्निभिः) सूर्य्य अग्नि प्रभृति आग्नेय शक्तियों के साथ (आ+याहि) इस संसार में आ और आकर इसकी सुरक्षा कर । जो तू (होतारम्) सर्वधनप्रदाता है । हे ईश ! पुनः (प्रयता) अपने-२ कार्य्य में नियत और (हविष्मती) अग्निहोत्रादि शुभकर्मवती प्रजा (त्वाम्+आ+अनक्तु) तुझको ही अलङ्कृत करें । जो तू (यजिष्ठम्) परम यजनीय है, वह तू (बर्हिः) हृदय प्रदेश को (आसदे) प्राप्त कर वहाँ बैठ ॥१ ॥
भावार्थ - अग्नि यह नाम ईश्वर का परम प्रसिद्ध है । उसकी स्तुति प्रार्थना हम मनुष्य सदा करें ॥१ ॥
टिप्पणी -
१−यह सूक्त भौतिक अग्नि पक्ष में भी घटता है ।