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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 60 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भर्गः प्रागाथः देवता - अग्निः छन्दः - सतःपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अच्छा॒ हि त्वा॑ सहसः सूनो अङ्गिर॒: स्रुच॒श्चर॑न्त्यध्व॒रे । ऊ॒र्जो नपा॑तं घृ॒तके॑शमीमहे॒ऽग्निं य॒ज्ञेषु॑ पू॒र्व्यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अच्छ॑ । हि । त्वा॒ । स॒ह॒सः॒ । सू॒नो॒ इति॑ । अ॒ङ्गि॒रः॒ । स्रुचः॑ । चर॑न्ति । अ॒ध्व॒रे । ऊ॒र्जः । नपा॑तम् । घृ॒तऽके॑शम् । ई॒म॒हे॒ । अ॒ग्निम् । य॒ज्ञेषु॑ । पू॒र्व्यम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अच्छा हि त्वा सहसः सूनो अङ्गिर: स्रुचश्चरन्त्यध्वरे । ऊर्जो नपातं घृतकेशमीमहेऽग्निं यज्ञेषु पूर्व्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अच्छ । हि । त्वा । सहसः । सूनो इति । अङ्गिरः । स्रुचः । चरन्ति । अध्वरे । ऊर्जः । नपातम् । घृतऽकेशम् । ईमहे । अग्निम् । यज्ञेषु । पूर्व्यम् ॥ ८.६०.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 32; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (सहसः+सूनो) हे जगदुत्पादक (अङ्गिरः) हे अङ्गिन् हे सर्वगत देव ! (अध्वरे) यज्ञ में (त्वा+हि) तुझको ही (अच्छ) प्राप्त करने के लिये (स्रुचः) अग्निहोत्री के स्रुवा आदि साधन (चरन्ति) कार्य्य में प्रयुक्त होते हैं, वैसे (अग्निम्) अग्नि नाम से प्रसिद्ध तुझको ही हम उपासक (ईमहे) प्रार्थना करते हैं, जो तू (ऊर्जः+नपातम्) बलप्रदाता है, (घृतकेशम्) जलादिकों का ईश है । पुनः (यज्ञेषु+पूर्व्यम्) यज्ञों में सब पदार्थों को पूर्ण करनेवाला तू ही है ॥२ ॥

    भावार्थ - यह सम्पूर्ण सूक्त यज्ञिय अग्नि में भी घट सकता है, अतः बहुत से विशेषण ऐसे रक्खे गए हैं कि वे दोनों के वाचक हों, दोनों अर्थों को देने में समर्थ हों, जैसे (सहसः+सूनुः) इसका अग्नि पक्ष में बल का पुत्र अर्थ है, क्योंकि बलपूर्वक रगड़ से अग्नि उत्पन्न होता है । इत्यादि ॥२ ॥

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