ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 60/ मन्त्र 6
शोचा॑ शोचिष्ठ दीदि॒हि वि॒शे मयो॒ रास्व॑ स्तो॒त्रे म॒हाँ अ॑सि । दे॒वानां॒ शर्म॒न्मम॑ सन्तु सू॒रय॑: शत्रू॒षाह॑: स्व॒ग्नय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठशोच॑ । शो॒चि॒ष्ठ॒ । दी॒दि॒हि । वि॒शे । मयः॑ । रास्व॑ । स्तो॒त्रे । म॒हान् । अ॒सि॒ । दे॒वाना॑म् । शर्म॑न् । मम॑ । स॒न्तु॒ । सू॒रयः॑ । श॒त्रु॒ऽसहः॑ । सु॒ऽअ॒ग्नयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शोचा शोचिष्ठ दीदिहि विशे मयो रास्व स्तोत्रे महाँ असि । देवानां शर्मन्मम सन्तु सूरय: शत्रूषाह: स्वग्नय: ॥
स्वर रहित पद पाठशोच । शोचिष्ठ । दीदिहि । विशे । मयः । रास्व । स्तोत्रे । महान् । असि । देवानाम् । शर्मन् । मम । सन्तु । सूरयः । शत्रुऽसहः । सुऽअग्नयः ॥ ८.६०.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 60; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
विषय - N/A
पदार्थ -
हे ईश ! (शोच) प्रकृतियों में तू दीप्यमान हो । (शोचिष्ठ) हे अतिशय प्रकाशमय ! (दीदिहि) सबको प्रकाशित कर । (विशे) प्रजामात्र को तथा (स्तोत्रे) स्तुतिपाठक जन को (मयः) कल्याण (रास्व) दे । तू (महान्+असि) महान् है । हे ईश ! (मम) मेरे (सूरयः) विद्वद्वर्ग (देवानाम्) सत्पुरुषों के (शर्मन्) कल्याणसाधन में ही सदा (सन्तु) रहें और वे (शत्रूषाहः) शत्रुओं को दबानेवाले और (स्वग्नयः) अग्निहोत्रादि शुभकर्मवान् हों ॥६ ॥
भावार्थ - यह ईश्वर से आशीर्वाद माँगना है । उसी की कृपा से धन, जन, बल और प्रताप प्राप्त होते हैं । हमारे स्वजन और परिजन भी जगत् के हितकारी हों और नित्य नैमित्तिक कर्मों में सदा आसक्त रहें ॥६ ॥
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