ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 64/ मन्त्र 11
अ॒यं ते॑ शर्य॒णाव॑ति सु॒षोमा॑या॒मधि॑ प्रि॒यः । आ॒र्जी॒कीये॑ म॒दिन्त॑मः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । ते॒ । श॒र्य॒णाऽव॑ति । सु॒ऽसोमा॑याम् । अधि॑ । प्रि॒यः । आ॒र्जी॒कीये॑ । म॒दिन्ऽत॑मः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं ते शर्यणावति सुषोमायामधि प्रियः । आर्जीकीये मदिन्तमः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । ते । शर्यणाऽवति । सुऽसोमायाम् । अधि । प्रियः । आर्जीकीये । मदिन्ऽतमः ॥ ८.६४.११
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 64; मन्त्र » 11
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 45; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 45; मन्त्र » 5
विषय - N/A
पदार्थ -
हे इन्द्र ! (शर्य्यणावति) इस विनश्वर शरीर में (सुसोमायाम्) इस रसमयी बुद्धि में और (आर्जीकीये) समस्त इन्द्रियों के सहयोग में (अधिश्रितः) आश्रित (ते) तेरे अनुग्रह से (मदिन्तमः) तेरा आनन्दजनक याग सदा हो रहा है । इसको ग्रहण कीजिये ॥११ ॥
भावार्थ - याग दो प्रकार के हैं । जो विविध द्रव्यों से किया जाता है, वह बाह्य और जो इस शरीर में बुद्धि द्वारा अनुष्ठित होता है, वह आभ्यन्तर याग है । इसी को मानसिक, आध्यात्मिक आदि भी कहते हैं और यही यज्ञ श्रेष्ठ भी है ॥११ ॥
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