ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 65/ मन्त्र 3
आ त्वा॑ गी॒र्भिर्म॒हामु॒रुं हु॒वे गामि॑व॒ भोज॑से । इन्द्र॒ सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । त्वा॒ । गीः॒ऽभिः । म॒हाम् । उ॒रुम् । हु॒वे । गाम्ऽइ॑व । भोज॑से । इन्द्र॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा गीर्भिर्महामुरुं हुवे गामिव भोजसे । इन्द्र सोमस्य पीतये ॥
स्वर रहित पद पाठआ । त्वा । गीःऽभिः । महाम् । उरुम् । हुवे । गाम्ऽइव । भोजसे । इन्द्र । सोमस्य । पीतये ॥ ८.६५.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 65; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 46; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 46; मन्त्र » 3
विषय - N/A
पदार्थ -
हे इन्द्र ! (सोमस्य+पीतये) इस संसार की रक्षा के लिये (गीर्भिः) विविध स्तोत्रों से (त्वा) तेरा (आ+हुवे) आवाहन और स्तवन करता हूँ, जो तू (महाम्) महान् और (उरुम्) सर्वत्र व्याप्त है । यहाँ दृष्टान्त देते हैं (भोजसे) घास खिलाने के लिये (गाम्+इव) जैसे गौ को बुलाते हैं ॥३ ॥
भावार्थ - जो महान् और उरु अर्थात् सर्वत्र विस्तीर्ण है, वह स्वयं संसार की रक्षा में प्रवृत्त है, तथापि प्रेमवश भक्तजन उसका आह्वान और प्रार्थना करते हैं ॥३ ॥
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