ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 65/ मन्त्र 2
यद्वा॑ प्र॒स्रव॑णे दि॒वो मा॒दया॑से॒ स्व॑र्णरे । यद्वा॑ समु॒द्रे अन्ध॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । वा॒ । प्र॒ऽस्रव॑णे । दि॒वः । मा॒दया॑से । स्वः॑ऽनरे । यत् । वा॒ । स॒मु॒द्रे । अन्ध॑सः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वा प्रस्रवणे दिवो मादयासे स्वर्णरे । यद्वा समुद्रे अन्धसः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । वा । प्रऽस्रवणे । दिवः । मादयासे । स्वःऽनरे । यत् । वा । समुद्रे । अन्धसः ॥ ८.६५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 65; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 46; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 46; मन्त्र » 2
विषय - उसी की व्यापकता दिखलाते हैं ।
पदार्थ -
हे ईश ! (यद्वा) अथवा (स्वर्णरे) प्रकाशमय (दिवः+प्रस्रवणे) सूर्य्य के गमनस्थान में (यद्वा) यद्वा (समुद्रे) अन्तरिक्ष में यद्वा (अन्धसः) अन्नोत्पत्तिकरण पृथिवी के गमनस्थान में अथवा जहाँ-तहाँ सर्वत्र स्थित होकर तू (मादयसे) प्राणिमात्र को आनन्दित कर रहा है, तथापि हम उपासक तेरे शुभागमन के लिये तुझसे प्रार्थना करते हैं ॥२ ॥