ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
प्र यद्व॑स्त्रि॒ष्टुभ॒मिषं॒ मरु॑तो॒ विप्रो॒ अक्ष॑रत् । वि पर्व॑तेषु राजथ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । यत् । वः॒ । त्रि॒ऽस्तुभ॑म् । इष॑म् । मरु॑तः । विप्रः॑ । अक्ष॑रत् । वि । पर्व॑तेषु । रा॒ज॒थ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यद्वस्त्रिष्टुभमिषं मरुतो विप्रो अक्षरत् । वि पर्वतेषु राजथ ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । यत् । वः । त्रिऽस्तुभम् । इषम् । मरुतः । विप्रः । अक्षरत् । वि । पर्वतेषु । राजथ ॥ ८.७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में मरुन्नामधारी प्राणों की स्तुति की जाती है ।
पदार्थ -
(मरुतः) हे आन्तरिक प्राणो ! (यद्) जब (विप्रः) मेधावी योगाभ्यासी जन (वः) आपको (त्रिष्टुभम्+इषम्) रेचक, पूरक और कुम्भक तीन प्रकार के (इषम्) बल को (प्र+अक्षरत्) देता है (पर्वतेषु) तब आप मस्तिष्कों पर (विराजथ) विराजमान होते हैं ॥१ ॥
भावार्थ - यहाँ मरुत् शब्द से सप्तप्राणों का ग्रहण है−नयनद्वय, कर्णद्वय, घ्राणद्वय और एक जिह्वा । इन सातों में व्याप्त वायु का नाम मरुत् है, अतएव सप्त मरुत् का वर्णन अधिक आता है । एक-२ की वृत्ति मानो सात सात हैं, अतः ७x७=४९ मरुत् माने जाते हैं, मरुत् नाम यहाँ प्राणों का ही है, इसमें एक प्रमाण यह है कि इन्द्र का नाम मरुत्वान् है । इन्द्र=जीवात्मा । इसका साथी यह प्राण है, अतः इन्द्र मरुत्वान् कहलाता है । यह अध्यात्म अर्थ है, भौतिकार्थ में मरुत् शब्द वायुवाची है, लौकिकार्थ में मरुत् शब्द वैश्यवाची और सेनावाचक होता है । भावार्थ इसका यह है कि प्रथम योगाभ्यास के लिये विप्र अर्थात् परम बुद्धिमान् बनो, पश्चात् इन नयनादि इन्द्रियों को वश में करने के लिये प्राणायाम करो, इस क्रिया से तुम्हारा शिर अतिशय बलिष्ठ और ज्ञान-विज्ञान सहित होगा, हे मनुष्यों ! उस योगरत शिर से प्राणियों का और अपना उद्धार करो ॥१ ॥
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