ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 74/ मन्त्र 2
यं जना॑सो ह॒विष्म॑न्तो मि॒त्रं न स॒र्पिरा॑सुतिम् । प्र॒शंस॑न्ति॒ प्रश॑स्तिभिः ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । जना॑सः । ह॒विष्म॑न्तः । मि॒त्रम् । न । स॒र्पिःऽआ॑सुतिम् । प्र॒ऽशंस॑न्ति । प्रश॑स्तिऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यं जनासो हविष्मन्तो मित्रं न सर्पिरासुतिम् । प्रशंसन्ति प्रशस्तिभिः ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । जनासः । हविष्मन्तः । मित्रम् । न । सर्पिःऽआसुतिम् । प्रऽशंसन्ति । प्रशस्तिऽभिः ॥ ८.७४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 74; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
विषय - उसका महत्त्व दिखलाते हैं ।
पदार्थ -
(हविष्मन्तः) घृतादिसाधनसम्पन्न (जनासः) मनुष्य (प्रशस्तिभिः) उत्तमोत्तम विविध स्तोत्रों से (सर्पिरासुतिम्) घृतादि पदार्थों को उत्पन्न करनेवाले (यम्) जिस जगदीश की (मित्रम्+न) मित्र के समान (प्रशंसन्ति) प्रशंसा स्तुति और प्रार्थना करते हैं, उसकी हम भी पूजा करें ॥२ ॥
भावार्थ - ईश्वर को निज मित्र जान उससे प्रेम करें और उसी की आज्ञा पर चलें ॥२ ॥
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