ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 74/ मन्त्र 3
पन्यां॑सं जा॒तवे॑दसं॒ यो दे॒वता॒त्युद्य॑ता । ह॒व्यान्यैर॑यद्दि॒वि ॥
स्वर सहित पद पाठपन्या॑सम् । जा॒तऽवे॑दसम् । यः । दे॒वऽता॑ति । उत्ऽय॑ता । ह॒व्यानि॑ । ऐर॑यत् । दि॒वि ॥
स्वर रहित मन्त्र
पन्यांसं जातवेदसं यो देवतात्युद्यता । हव्यान्यैरयद्दिवि ॥
स्वर रहित पद पाठपन्यासम् । जातऽवेदसम् । यः । देवऽताति । उत्ऽयता । हव्यानि । ऐरयत् । दिवि ॥ ८.७४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 74; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
विषय - N/A
पदार्थ -
हे मनुष्यों ! (पन्यांसम्) स्तवनीय और (जातवेदसम्) जिससे समस्त विद्याएँ और सम्पत्तियाँ उत्पन्न हुई हैं, उस देव की प्रार्थना करो । (यः) महेश्वर (देवताति) सम्पूर्ण पदार्थपोषक (दिवि) जगत् में (उद्यता) उद्योगवर्धक और आन्तरिक बलप्रद (हव्यानि) हव्यवत् उपयोगी और सुमधुर पदार्थों को (ऐरयत्) दिया करता है, अतः वही देव सर्वपूज्य है ॥३ ॥
भावार्थ - दिवि=यह सम्पूर्ण जगत् दिव्य सुरम्य और आनन्दप्रद है । उद्यत्=इसमें जितने पदार्थ हैं, वे उद्योग की शिक्षा दे रहे हैं । परन्तु हम मनुष्य अज्ञानवश इसको दुःखमय बनाते हैं । अतः जिससे सर्व ज्ञान की उत्पत्ति हुई है, उसकी उपासना करो, जिससे सुमति प्राप्त हो ॥३ ॥
इस भाष्य को एडिट करें