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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 26/ मन्त्र 5
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - पूषा छन्दः - पादनिचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    प्रत्य॑र्धिर्य॒ज्ञाना॑मश्वह॒यो रथा॑नाम् । ऋषि॒: स यो मनु॑र्हितो॒ विप्र॑स्य यावयत्स॒खः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रति॑ऽअर्धिः । य॒ज्ञाना॑म् । अ॒श्व॒ऽह॒यः । रथा॑नाम् । ऋषिः॑ । सः । यः । मनुः॑ऽहितः । विप्र॑स्य । य॒व॒य॒त्ऽस॒खः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रत्यर्धिर्यज्ञानामश्वहयो रथानाम् । ऋषि: स यो मनुर्हितो विप्रस्य यावयत्सखः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रतिऽअर्धिः । यज्ञानाम् । अश्वऽहयः । रथानाम् । ऋषिः । सः । यः । मनुःऽहितः । विप्रस्य । यवयत्ऽसखः ॥ १०.२६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 26; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 5

    शब्दार्थ -
    (ऋषिः सः) ऋषि वह है (य:) जो (यज्ञानां प्रति अधि:) यज्ञों का प्रतिपादक है, जो यज्ञ के तुल्य शुद्ध, पवित्र एवं निष्पाप है, (रथानाम् अश्व-हयः) जो रथों का=जीवन रथों का आशु प्रेरक है, शीघ्र संचालक है, शुभ कर्मों का प्राण है, (मनुः हितः) जो मनुष्यमात्र का हित और कल्याण चाहनेवाला है, (विप्रस्य सख:) जो ज्ञानी, बुद्धिमान् और धार्मिक व्यक्तियों का सखा है, (यावयत्) जो सब दुःखों को दूर कर देता है ।

    भावार्थ - ऋषि कौन है ? विभिन्न ग्रन्थों में ऋषि शब्द की विभिन्न व्याख्याएँ मिलेगी । वेद ने ऋषि शब्द की जो परिभाषा की है वह अपूर्व, अद्भुत एवं निराली है । ऋषि के लक्षणों का वर्णन करते हुए वेद कहता है - १. ऋषि वह है जो यज्ञों=श्रेष्ठ कर्मों का सम्पादक है, जो स्वयं यज्ञ के समान पवित्र एवं निर्दोष है और शुभ कार्यों को ही करता है । २. ऋषि वह है जो जीवन रथों को शीघ्र प्रेरणा देता है, जो कुटिल, दुराचारी, व्यभिचारी व्यक्तियों को भी अपनी सुप्रेरणा से सुपथ पर चलता है । ३. ऋषि वह है जो बिना किसी भेदभाव के, बिना पक्षपात के मनुष्यमात्र का हितसाधक है। ४. ऋषि वह है जो ज्ञानियों और बुद्धिमान् व्यक्तियों का मित्र है । ५. ऋषि वह है जो मनुष्यमात्र की परिधि से भी आगे बढ़कर प्राणिमात्र के कष्टों और दुःखों को दूर करता है ।

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