Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 36 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 9
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदुपरिष्टाद् बृहती स्वरः - मध्यमः

    सं सी॑दस्व म॒हाँ अ॑सि॒ शोच॑स्व देव॒वीत॑मः । वि धू॒मम॑ग्ने अरु॒षं मि॑येध्य सृ॒ज प्र॑शस्त दर्श॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । सी॒द॒स्व॒ । म॒हान् । अ॒सि॒ । शोच॑स्व । दे॒व॒ऽवीत॑मः । वि । धू॒मम् । अ॒ग्ने॒ । अ॒रु॒षम् । मि॒ये॒ध्य॒ । सृ॒ज । प्र॒ऽश॒स्त॒ । द॒र्स॒तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं सीदस्व महाँ असि शोचस्व देववीतमः । वि धूममग्ने अरुषं मियेध्य सृज प्रशस्त दर्शतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । सीदस्व । महान् । असि । शोचस्व । देववीतमः । वि । धूमम् । अग्ने । अरुषम् । मियेध्य । सृज । प्रशस्त । दर्सतम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 4

    Bhajan -

     वैदिक मन्त्र
    सं सीदस्व महॉं असि, शोचस्व देववीतम:। 
    वि धूममग्ने अरुषं मियेध्य, सृज प्रशस्त दर्शतम्
                               ‌‌‌‌    ‌‌‌‌               ऋ॰१.३६.९
                        वैदिक भजन ११४५ वां
                            मिश्र अहीर भैरव
                       गायन समय प्रातः ४ से ७
                          ताल रूपक साथ मात्रा
                                भाग १
    हे अग्ने तू है महान
    है प्रभाव अमृत समान
    बन जा आभावान। ।। 
    प्रकट करते हैं उद्गार 
    आत्मा में तेरा अवतार 
    आत्मन् तू पहचान 
    हे अग्ने............ 
    तेरा निरुद्देश्य  जीवन 
    हो ना जाए व्यर्थ व्यतीत 
    जैसे-तैसे कर्म करके 
    जाए ना जीवन यूं बीत 
    प्राप्त करने योग्य ना है 
    ऐसे जीवन का निधान 
    यह है मृत्यु समान 
    हे अग्ने......... 
    अपने अन्दर जो छिपी है 
    शक्ति को पहचान तू 
    तू महान है महिमावान है
    प्राप्त कर परिस्थान तू 
    देव-वी-तम बन जा तू 
    और बन जा तू गुणवान 
    बन जा प्रतिभावान 
    हे अग्ने.......... 
    तू आदर्श पुरुष ही बनना 
    अग्नि का कर ले आधान 
    होगा तेरा यशोगान 
    हे आत्मन् ! बन कीर्तिमान 
    जग में पा ले उत्तम स्थान 
    हे प्यारे याज्ञिक यजमान ! 
    लेके वेद का ज्ञान 
    हे अग्ने....... 
                          ‌‌‌‌     भाग २
    हे अग्ने तू है महान 
    है प्रभाव अमृत समान 
    बन जा आभावान 
    प्रकट करते हैं उद्गार 
    आत्मा में तेरा अवतार 
    आत्मन् तू पहचान 
    हे अग्ने........ 
    जैसे अग्नि यज्ञ कुण्ड में 
    स्थिति बनाता है विस्तृत 
    ऐसे तू भी समाज में 
    करते जाना विकास नित
    हे अग्ने तू मेध्य है 
    हिंसा और संगम का कर
    तू अकत अनुकाम 
    हे अग्ने........ 
    कर अशुभ वृत्तियों की हिंसा 
    और संगम शुभवृत्तियों का 
    कर संहार तू पाप- अधर्म का
    और संगम शुभकृतियों का 
    हे आत्मन् तू प्रशस्त है 
    जीवों में उत्कृष्ट है तू 
    पा उचित सम्मान 
    हे अग्ने........... 
    वश में ना हो प्रकृति के तू 
    शोचनीय स्थिति ना बन 
    अरुष दर्शत भाव जगा
    प्राप्त कर उन्नत जीवन 
    हे अग्ने! आत्मन् मानव 
    ललित-आभा का कर प्रतान 
    सुगन्धमय अभ्यातान
    हे अग्ने........... 
                        १३.९.२०२३
                          ८.०० रात्रि
    अभावान= चमक से भरा 
    उद्गार= दिल में भरी बात का बाहर आना 
    निधान= आधार 
    परिस्थान दृढ़ता मजबूती 
    देववीतम=अतिशय दिव्य गुणों को प्राप्त करने वाला आधान= सुरक्षित रखना 
    ललित=सुन्दर
    मेध्य= पवित्र आत्मा यज्ञ के योग्य 
    अकत=सारा,  समूचा 
    अनुकाम =योग्य इच्छा 
    प्रशस्त= प्रशंसनीय 
    शोचनीय= दु:ख उत्पन्न करने वाला 
    अरुष= अहिंसनीय 
    दर्शत= दर्शनीय दर्शन करने योग्य 
    प्रतान= फैलाव 
    अभ्यातान= फैलाव
    🕉🧘‍♂️द्वितीय श्रृंखला का १३८ वां वैदिक भजन
    और अब तक का ११४५ वां वैदिक भजन🌹🙏
    🕉वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं🌹🙏

    Vyakhya -

    सर्वत्र अपना प्रभाव छोड़
    हे अग्नि! तू महान है तू यज्ञ कुंड में सम्यक प्रकार से स्थित हो, चमक। अपने आरोचमान दर्शनीय धूम को छोड़। यह उद्गार हम यज्ञ अग्नि को सम्बोधित करते हुए प्रकट कर रहे हैं। पर वस्तुतः अग्नि की अन्योक्ति द्वारा वेद मनुष्य के आत्मा को प्रेरित कर रहा है। हे आत्मन् तू अपने स्वरूप को पहचान अपने अन्दर छिपी हुई शक्ति का आंकलन कर । तू महान है महिमावान है, तू और भी अधिक महिमा को प्राप्त कर । तू 'देव- वी-तम' बन। दिव्य गुण रूप देवों को प्राप्त करने वाला' देव-वी' कहलाता है। तू साधारण 'देव-वी' नहीं है, कितु सर्वातिशायी 'देव वी' बन। तेरे अन्दर विविध दिव्य गुण का ऐसा निवास हो,कि उन दिव्य गुण का तू आदर्श पुरुष कहलाने लगे। जब तू ऐसा आदर्श दिव्यगुणी पुरुष बन जाएगा तब तू जगत में चमकेगा। सर्वत्र तेरा गुणगान और यशोगान होगा। हे आत्मन्! हे मानव!, तू संसार में अपनी विशेष स्थिति बना। यूं ही जैसे- तैसे निरुद्देश्य जीवन व्यतीत कर देना और समय आने पर मृत्यु का ग्रास हो जाना स्पृहणीय वस्तु नहीं है। जैसे अग्नि यज्ञ कुण्ड में अपनी स्थिति बनता है और वहां से बहु ज्वाला होकर विस्तार होता है, वैसे ही तू समाज में अपनी विशेष स्थिति बनाकर अपना और अपने संपर्क में आने वाले अन्य व्यक्तियों का विकास कर। 
    हे आत्मन् ते 'मियेद्य'है, मेद्य है, पवित्र और मेधार्ह
     (यज्ञ के योग्य ) है। जो मेधार्ह होता है वह हिंसा और संगम दोनों कार्यों को करता है। अतः तुझे भी अशुभ 
    वृत्तियों की हिंसा और शुभ वृतियों के साथ संगम करना है। साथ ही समझ में पनप रहे पाप और धर्म का संघर्ष करके पुण्य कर्म एवं धर्म के साथ लोगों का संगम करना है। हे आत्मन् तू प्रशस्त है, जड़ प्रकृति की अपेक्षा उत्कृष्ट है। अपनी उसे उत्कृष्ट को भी तू अक्षुण्ण बनाये रख। 
    तू प्रकृति के वश में होकर शोचनीय स्थिति को मत प्राप्त हो। जहां भी तू जाए वहां अपने 'अरुष'(दुर्दम्य एवं आरोचमान) तथा दर्शत (दर्शनीय) प्रभाव को छोड़ जैसे अग्नि धूम शिखा को छोड़ती है। तेरे दिव्य जीवन की छाप अन्यों पर पढ़नी चाहिए, तुममें उठने वाले सुगन्धमय धूम से वातावरण प्रभावित होना चाहिए। हे अग्नि !है आत्मन्! है मानव! तू चमक अपनी आभा को सर्वत्र प्रसारित कर। 

     

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top