Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 31 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 7
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    त्वं तम॑ग्ने अमृत॒त्व उ॑त्त॒मे मर्तं॑ दधासि॒ श्रव॑से दि॒वेदि॑वे। यस्ता॑तृषा॒ण उ॒भया॑य॒ जन्म॑ने॒ मयः॑ कृ॒णोषि॒ प्रय॒ आ च॑ सू॒रये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । तम् । अ॒ग्ने॒ । अ॒मृ॒त॒ऽत्वे । उ॒त्ऽत॒मे । मर्त॑म् । द॒धा॒सि॒ । श्रव॑से । दि॒वेऽदि॑वे । यः । त॒तृ॒षा॒णः । उ॒भया॑य । जन्म॑ने । मयः॑ । कृ॒णोषि॑ । प्रयः॑ । आ । च॒ । सू॒रये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं तमग्ने अमृतत्व उत्तमे मर्तं दधासि श्रवसे दिवेदिवे। यस्तातृषाण उभयाय जन्मने मयः कृणोषि प्रय आ च सूरये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। तम्। अग्ने। अमृतऽत्वे। उत्ऽतमे। मर्तम्। दधासि। श्रवसे। दिवेऽदिवे। यः। ततृषाणः। उभयाय। जन्मने। मयः। कृणोषि। प्रयः। आ। च। सूरये ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 2

    Bhajan -

     आज का वैदिक भजन 🙏 1106

    ओ३म् त्वं तम॑ग्ने अमृत॒त्व उ॑त्त॒मे मर्तं॑ दधासि॒ श्रव॑से दि॒वेदि॑वे ।

    यस्ता॑तृषा॒ण उ॒भया॑य॒ जन्म॑ने॒ मय॑: कृ॒णोषि॒ प्रय॒ आ च॑ सू॒रये॑ ॥

    ऋग्वेद 1/31/7

     

    उत्तम प्रभु की शरण, देती है प्रेरणा, 

    परलोक का भी सुख, पड़ता है हेरना, 

    स्वाध्याय में लगे यह मन, 

    और करें मधुर मनन, 

    सुखानन्द को खेवना

    उत्तम प्रभु की शरण, देती है प्रेरणा

     

    अधिनियम सुख-दु:ख का, 

    प्रतिफल है कर्म का, 

    विरला ही मर्म जाने, 

    आत्मा के धर्म का, 

    ज्ञानी भेद को खोलें, 

    जो मानें, सो बोले, 

    प्रभु उसे करता है प्रतिपन्न

    उत्तम प्रभु की शरण, देती है प्रेरणा

     

    आत्मा की नित्यता, 

    और उसके हैं जन्म अनेक, 

    जिसको यह भान होता, 

    बनता वो  सुचेत 

    पाप कर्म को वो छोड़े 

    पुण्य से नाता जोड़े, 

    पुरुषार्थी बनता अति अनुपम 

    उत्तम प्रभु की शरण, देती है प्रेरणा

     

    आत्मा के चिन्तन में, 

    स्वाध्याय भक्त करे नित,

    बनता है भक्त सूरि, 

    होता ईश पे आकर्षित, 

    आनन्द सुख में डोले, 

    परमेश्वर का हो ले, 

    यही मोक्ष-प्राप्ति का साधन, 

    उत्तम प्रभु की शरण, देती है प्रेरणा

     

    करना लोक-उपेक्षा, 

    परलोक जाए सुधर, 

    स्वार्थ-लोभ तज के, 

    पापाचरण ना  कर, 

    उन्नतियाँ दोनों ले ले,

    कृपा के भरे ले झोले 

    नित कर  लें प्रभु का आवाहन, 

    उत्तम प्रभु की शरण, देती है प्रेरणा, 

    परलोक का भी सुख पड़ता है हेरना, 

    स्वाध्याय में लगे यह मन, 

    और करें मधुर मनन, 

    सुखानन्द को खेवना

    उत्तम प्रभु की शरण, देती है प्रेरणा

     

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई

    रचना दिनाँक :-  १८.२.२००८   १७.१० सायं 

     

    राग :- झिंझोटी

    राग का गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर, ताल अद्धा

     

    शीर्षक :- प्रभु कृपा का भागी भजन ६७९वां

    *तर्ज :- *

    714-0115  

     

    अधिनियम = सच्चे नियम

    मनन = विचारशील बात का पालन करना

    सूरि = विद्वान 

    प्रतिपन्न = परिपूर्ण

    सुचेत = अच्छी तरह सावधान

    अनुपम = सर्वोत्तम,बेजोड़

    उपेक्षा = तिरस्कार

     

    Vyakhya -

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇

     

    प्रभु कृपा का भागी

     

    मनुष्य और पशु में विवेक शक्ति के कारण भेद है। सभी प्राणियों में सबसे उत्तम मनुष्य है। जहां तक खानपान निद्रा मैथुन प्रवृत्तियों का सवाल है वहां तक मनुष्य और दूसरे प्राणियों में समानता है ।मनुष्य चारों और दृष्टि डालता है। वह देखता है कि कोई दु:खी है तो कोई सुखी है, कोई धनी है कोई दरिद्र है, कोई सर्वांग सुन्दर है, किसी के अंग ही पूरे नहीं, वरन् वह कुरूप  है । इस विषमता से वह चिंता में पड़ जाता है। श्रवण मनन और चिंतन से उसे निश्चय होता है कि वह शरीर मात्र नहीं, मृत्यु उसे शरीर से अतिरिक्त एक चेतन आत्मा का बोध कराती है। उसे प्रतीत होता है कि प्राणियों की यह विषमता इसके अपने कर्मों के कारण है। इस तत्व का निश्चय होते ही उसे यह भी ज्ञान होने लगता है कि शरीर अवश्य अनित्य है ; बाल यौवन और बुढ़ापा ही इसे नाशवान होने के अकाट्य प्रमाण हैं। शरीर के नाश होने पर भी कोई ऐसा पदार्थ शेष रह जाता है जो इसे शरीर से प्रथक है। अन्यथा कृतहान और अकृताभ्यागम दोष आएंगे। 

    मरने से पूर्व जो भले बुरे कर्म किए उनका फल मिला नहीं और यह प्राणी चल बसा। किये कर्म का फ़ल ना मिलना कृतहान कहलाता है। कोई सुखी उत्पन्न हुआ है कोई दुखी। आत्मा कोई है नहीं, जिसने पूर्व कोई कर्म किए हो तो यह सुख दु:ख भेद अवस्था कैसे संभव है?

    किसी कर्म के बिना सुख दु:ख मिलना अकृताभ्यागम कहता है। इन दोनों को स्वीकार कर लिया जाए तो संसार की कार्य कारण अवस्था ही टूट जाए अतः विवश होकर मानना पड़ता है कि शरीर के अतिरिक्त कोई आत्मा है और वह नित्य है अर्थात् शरीर के मिलने से पूर्व भी वह था। पूर्व के किए कर्मों का फल उसे वर्तमान शरीर मिला है।इस शरीर में किए कर्मों का फल भोग ने के लिए उसे इस शरीर के बाद दूसरा शरीर मिलेगा क्योंकि वह इस शरीर के पीछे भी बना रहता है। आत्मा के इस तत्व का बहुत थोड़ों को ही याद होता है।

    आत्मा की नित्यता और उसके कारण होने वाले आत्मा के अनेक जन्मों के सिद्धांत को कोई विरला भाग्यवान ही जान पाता है। जिसको यह तक तो ज्ञात होता है वह व्याकुल हो उठता है। उसे अपनी वर्तमान दशा तथा भावी दशा से असन्तोष और क्षोभ आ घेरते हैं। 

    वह अपना वर्तमान और भविष्य सुधारना चाहता है और इसके लिए निरन्तर पुरुषार्थ करता है। ऐसे मनुष्य के संबंध में कहा गया है, मानो व्याकुल हुआ भगवान से कहता है : अपां मध्ये तस्थिवांसम तृष्णा...... सदा जल के बीच में रहने वाले तेरे भक्त को प्यास ने आ घेरा है। दु:ख से बचाने वाले कृपा कर, दया कर!

    संसार में भगवान व्यापक है, इसके अंदर भी है, बाहर भी है,अर्थात संसार भगवान में रह रहा है अतः भक्त का यह समझना ठीक है कि वह भगवान में रह रहा है। आनन्दकन्द सच्चिदानन्द में रहने वाले को आनन्द की इच्छा का उत्पन्न होना ऐसा है, जैसा जन्म रहने वाले को जल की इच्छा सताए। जिस मनुष्य में ऐसी तड़प पैदा हो जाए उसे मन्त्र कहता है--सबकी उन्नति करने वाला प्रभु उस मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ मोक्ष प्राप्ति के निमित्त प्रतिदिन आज मैं चिन्तन में लगा देता है। दिन रात स्वाध्याय  करने से मनुष्य का ज्ञान बढ़ता है। वह 'सूरि' अर्थात् ज्ञानी बन जाता है। 

    इस मन्त्र में संकेत किया गया है कि जो केवल वर्तमान जन्म सुधार में लगा है ऐसा मनुष्य परलोक से भी विमुख होकर स्वार्थ परायण होकर पापाचरण में भी लग सकता है और इस प्रकार अपना अनिष्ट कर सकता है। और जो केवल परलोक साधन में ही लगा है वर्तमान की उपेक्षा करता है, संभव है वर्तमान की उपेक्षा करने से वह अपने करणों, उपकरणों--देह, इन्द्रियों आदि की ही हानि कर बैठे, और इस प्रकार परलोक साधन से भी वंचित रह जाए।

    जो दोनों उन्नतियों के लिए व्याकुल होकर उनकी प्राप्ति के लिए जी जान से यत्न करता है , वह प्रभु -कृपा का भागी हो सकता है।

     

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top