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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 45 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 45/ मन्त्र 16
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
य एक॒ इत्तमु॑ ष्टुहि कृष्टी॒नां विच॑र्षणिः। पति॑र्ज॒ज्ञे वृष॑क्रतुः ॥१६॥
स्वर सहित पद पाठयः । एकः॑ । इत् । तम् । ऊँ॒ इति॑ । स्तु॒हि॒ । कृ॒ष्टी॒नाम् । विऽच॑र्षणिः । पतिः॑ । ज॒ज्ञे । वृष॑ऽक्रतुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
य एक इत्तमु ष्टुहि कृष्टीनां विचर्षणिः। पतिर्जज्ञे वृषक्रतुः ॥१६॥
स्वर रहित पद पाठयः। एकः। इत्। तम्। ऊँ इति। स्तुहि। कृष्टीनाम्। विऽचर्षणिः। पतिः। जज्ञे। वृषऽक्रतुः ॥१६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 16
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
Bhajan -
वैदिक मन्त्र
य एक इत् तमु ष्टुहि कृष्टिनां विचर्षणि':।
पतिर्जज्ञे वृषक्रतु : ।। ऋ•६.४५.१६
वैदिक भजन
राग पहाड़ी
गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर
ताल कहरवा आठ मात्रा
भाग १
ऐ मानव ! किस-किस की करता फिरता है स्तुति
तेरा स्तुत्य जनक रक्षक पलक है विश्वापति
ऐ मानव........
तू हर किसी को क्यों ,पालक समझ बैठा (२)
करने लग जाता स्तुति, दिखता जो धन का धनी ।।
ऐ मानव.........
तू समझे लब्धप्रतिष्ठ
रोबीले को स्वामी (२)
स्तुति गीत गाने लगता
देख दार्शनिक हो या कवि है(२)
ऐ मानव........
निर्जीव हो या जीवित आकृति पे है जीविताशा(२)
मोहित सौंदर्य में आबन्ध
करता क्यों आविस्कृति(२)
ऐ मानव.........
ऐन्द्रयिक विषयों की
स्तुति में है मानव मृदित (२)
अज्ञानी जो हैं अतिशय
करते हैं भ्रमित निज मति(२)
ऐ मानव.............
भाग 2
ऐ मानव! किस-किस की
करता फिरता है स्तुति (2)
तेरा स्तुति जनक रक्षक पालक है विश्वापति।।
ऐ मानव...........
कुछ हैं रक्षक ज्ञानी ध्यानी
आर्यक आत्मज्ञ(२)
पर 'विचर्षणि' 'वृषकतु' गुण कर्म स्वभाव है कति?
ऐ मानव.........
केवल प्रभु हैं रक्षक
स्तुत्य वस्तुओं के जो हैं स्रोत तज स्तुतियां हज़ारों की
कर स्तुति बस ईश्वर की
ऐ मानव...........
सांसारिक आरक्ष आनन्द
आश्रय में है छलछिद्र (2)
महासूर्य के सम्मुख तो विषयी किरणें हैं क्षुद्र ही
ऐ मानव...........
क्षुद्र ज्ञान बल हमरा पारक पालन क्या करे ?(२)
'वृषक्रतु' ' विचर्षणि' इन्द्र( है) प्रजापिलक प्रजापति
ऐ मानव.........
भाग 3
ऐ मानव !किस-किस की
करता फिरता है स्तुति (२)
तेरा स्तुत्य जनक रक्षक
पालक है प्रजापति (२)।।
ऐ मानव........
सर्वद्रष्टा दृंहित दृष्टि
दीनबन्धु की है दिव्य(२)
सब जानते ईश्वर बिन
मिलती ही नहीं है गति(२)
ऐ मानव..........
दृढ़ कर्म संकल्प इन्द्र का
इक सोच में ही है सफल(२)
अन्यों पे न रहे निर्भर
तुच्छ आशा न रखना कभी (२)
ऐ मानव ..........
हार्दिक स्तुतियां हमरी
हंसकी हेतुक है बनी (२)
एक ही महासूर्य मघवन्
की करें मन से ही स्तुति(२) ।।
ऐ मानव..............
२८.८ २०२३
९.५० रात्रि
लब्धप्रतिष्ठ= प्रतिष्ठा पाया हुआ
जीविताशा= जीने की उम्मीद
आविस्कृति = प्रदर्शन करना
मृदित= मसल दिया गया
आर्यक= आदरणीय पुरुष
विचर्षणि= सर्वद्रष्टा
आरक्ष= सब और से रक्षा करने वाला
दृंहित= विकसित, समर्पित
हंसकी=सूर्य परमात्मा
हेतुक= उपकरण
वृषकतु= सर्वशक्तिमान
मघवन्= इन्द्र, ऐश्वर्यवान
🕉🧘♂️
द्वितीय श्रृंखला का १३१ वां वैदिक भजन और अब तक का ११३८ वां वैदिक भजन
🕉🙏
श्रोताओं को हार्दिक धन्यवाद एवं शुभकामनाएं?
Vyakhya -
सर्वद्रष्टा
हे मनुष्य तो किस-किस की स्तुति करता फिरता है? संसार में तो एक ही स्तुति के योग्य है । संसार में हम मनुष्यों का एक ही पति, पालक और रक्षक है। हे मनुष्य! तू न जाने किस-किस को अपना पालक समझता है और उस-उस की स्तुति, करने लगता है। कहीं तू रूपए पैसे वाले व्यक्ति को अपना रक्षक समझता है, कहीं तू किसी लब्धप्रतिष्ठ रोब- दाब वाले व्यक्ति को अपना स्वामी बना कर रहता है कहीं तू किसी दार्शनिक व कवि की प्रज्ञा व प्रतिभा के स्तुति गीत गाने लगता है,उनके ज्ञान व कवित्व पर मोहित रहता है। संसार में ऐसे भी मनुष्य बहुत हैं जो किन्हीं जीवित व जीवरहित आकृतियों के सौंदर्य को देखकर ही ऐसे मोहित हो जाते हैं कि उनका मन उस सौंदर्य की प्रशंसा करता नहीं थकता, परन्तु संसार में मनुष्य की स्तुति के पात्र बहुत नहीं है । एक ही है केवल, एक ही है और वह इन सब स्तुत्य वस्तुओं का एक स्रोत है। सैकड़ो की स्तुति न कर-- इन शाखाओं की स्तुति करने से कल्याण नहीं होता-- रक्षा नहीं मिलती। रूप रस आदि ऐन्द्रियक विषयों की स्तुति तो मनुष्य का विनाश ही करती है ,पालन कदापि नहीं। उनकी स्तुति तो अति- अज्ञानी पुरुष ही करते हैं,पर जो संसार में हमारे अन्य रक्षा करनेवाले बल ज्ञान और आनन्द है( बली ज्ञानी और सुखी लोग हैं) वे भी 'विचर्षणि' 'वृषक्रतु' नहीं हैं, उनमें ज्ञान और बल पर्याप्त नहीं है। संसार के यह सब बल ज्ञान और आनन्द तो उसे एक सच्चिदानन्द महासूर्य की क्षुद्र किरणें मात्र हैं। इन किरणों की स्तुति करने से अपने को बड़ा धोखा खाना पड़ेगा। हे मनुष्य ! यह संसार के क्षुद्र बल और ज्ञान मनुष्य का पालन न कर सकेंगे, यह बीच में ही छोड़ देंगे। इनमें पूरा ज्ञान और बोल नहीं है अतः इनमें आसक्त होकर उनकी स्तुति मत कर। स्तुति उसे मनुष्यों के एक पति की कर, जो विचर्षणि' होता हुआ पालक है और वृषक्रतु होता हुआ पालक है। वह एक-एक मनुष्य को विशेषतया देख रहा है कि प्रत्येक मनुष्य को और उसके सब संसार को वह इतनी अच्छी तरह देख रहा है कि प्रत्येक मनुष्य यही अनुभव करेगा कि उसे मेरे प्रभु को मानो एक मात्र मेरी फिक्र है और उसे पालक पति का एक-एक क्रतु एक-एक संकल्प एक-एक कर्म ऐसा 'वृष' अर्थात् बलवान् है कि उसकी सफलता के लिए उसे दोबारा संकल्प व यत्न करने की जरूरत नहीं होती। हे मूर्ख मनुष्य ! अपने उसे 'पति' की ही स्तुति कर, उसकी सैकड़ो किरनणों की स्तुति छोड़कर उस असली सूर्य की ही स्तुति कर,उसे एक ही की स्तुति कर।
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