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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 50/ मन्त्र 4
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेयः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    यत्र॒ वह्नि॑र॒भिहि॑तो दु॒द्रव॒द्द्रोण्यः॑ प॒शुः। नृ॒मणा॑ वी॒रप॒स्त्योऽर्णा॒ धीरे॑व॒ सनि॑ता ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑ । वह्निः॑ । अ॒भिऽहि॑तः । दु॒द्रव॑त् । द्रोण्यः॑ । प॒शुः । नृ॒ऽमनाः॑ । वी॒रऽप॑स्त्यः । अर्णाः॑ । धीरा॑ऽइव । सनि॑ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्र वह्निरभिहितो दुद्रवद्द्रोण्यः पशुः। नृमणा वीरपस्त्योऽर्णा धीरेव सनिता ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र। वह्निः। अभिऽहितः। दुद्रवत्। द्रोण्यः। पशुः। नृऽमनाः। वीरऽपस्त्यः। अर्णा। धीराऽइव। सनिता ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 50; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 4

    Meaning -
    Where the fire, placed, invoked and kindled in the vedi rises in flames, where a fiery leader, elected, supported and enthused goes around watching and watched all round among a dynamic people, loving all and loved at heart by all, and where the homes abound with brave and brilliant youth, there the streams of prosperity flow deep and calm like inalienable partners of the nation.

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