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  • यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 16
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - पुरुषो देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    य॒ज्ञेन॑ य॒ज्ञम॑यजन्त दे॒वास्तानि॒ धर्मा॑णि प्रथ॒मान्या॑सन्।ते ह॒ नाकं॑ महि॒मानः॑ सचन्त॒ यत्र॒ पूर्वे॑ सा॒ध्याः सन्ति॑ दे॒वाः॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञेन॑। य॒ज्ञम्। अ॒य॒ज॒न्त॒। दे॒वाः। तानि॑। धर्मा॑णि। प्र॒थ॒मानि॑। आ॒स॒न् ॥ ते। ह॒। नाक॑म्। म॒हि॒मानः॑। स॒च॒न्त॒। यत्र॑। पूर्वे॑। सा॒ध्याः। सन्ति॑। दे॒वाः ॥१६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । ते ह नाकम्महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञेन। यज्ञम्। अयजन्त। देवाः। तानि। धर्माणि। प्रथमानि। आसन्॥ ते। ह। नाकम्। महिमानः। सचन्त। यत्र। पूर्वे। साध्याः। सन्ति। देवाः॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 31; मन्त्र » 16
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    मन्त्रार्थ -
    फल-परम्परा प्रदर्शनपूर्वक मानस यज्ञ वा अध्यात्म यज्ञ का (देवा:) आदि विद्वान् महर्षि जन (यज्ञेन यज्ञम्-अयजन्त) मानस या अध्यात्म यज्ञ से यजनीय सङ्गमनीय परमात्मा का समागम करते रहे हैं (तानि धर्माणि प्रथमानि-आसन्) वे ध्यान समाधिरूप धर्म यथार्थ अनुष्ठान प्रथम के हैं- प्राथमिक हैं अथवा श्रेष्ठ हैं (ते ह नाकं महिमानः सचन्ते) वे ये जीव-न्मुक्तात्माएं नितान्त सुख स्वरूप मोक्ष का सेवन करते हैं (यत्र साध्याः-देवाः सन्ति) जहां अन्य साधनसिद्ध महानुभाव आत्माएं हैं ॥१६॥

    विशेष - (ऋग्वेद मं० १० सूक्त ६०) ऋषि:- नारायणः १ - १६ । उत्तरनारायणः १७ – २२ (नारा:आपः जल है आप: नर जिसके सूनु है- सन्तान हैं, ऐसे वे मानव उत्पत्ति के हेतु-भूत, अयन-ज्ञान का आश्रय है जिसका बह ऐसा जीवजन्मविद्या का ज वाला तथा जनकरूप परमात्मा का मानने वाला आस्तिक महाविद्वान् ) देवता - पुरुष: १, ३, ४, ६, ८–१६। ईशानः २। स्रष्टा ५। स्रष्टेश्वरः ७। आदित्यः १७-१९, २२। सूर्य २०। विश्वे देवाः २१। (पुरुष- समष्टि में पूर्ण परमात्मा)

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