यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 14
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - निचृतज्जगती
स्वरः - निषादः
1
आ नो॑ भ॒द्राः क्रत॑वो यन्तु वि॒श्वतोऽद॑ब्धासो॒ऽअप॑रीतासऽउ॒द्भिदः॑।दे॒वा नो॒ यथा॒ सद॒मिद् वृ॒धेऽअस॒न्नप्रा॑युवो रक्षि॒तारो॑ दि॒वेदि॑वे॥१४॥
स्वर सहित पद पाठआ। नः॒। भ॒द्राः। क्रत॑वः। य॒न्तु॒। वि॒श्वतः॑। अद॑ब्धासः। अप॑रीतास॒ इत्यप॑रिऽइतासः। उ॒द्भिद॒ इत्यु॒त्ऽभिदः॑। दे॒वाः। नः॒। यथा॑। सद॑म्। इत्। वृ॒धे। अस॑न्। अप्रा॑युव॒ इत्यप्र॑ऽआयुवः। र॒क्षि॒तारः॑। दि॒वेदि॑व॒ऽइति॑ दि॒वेदि॑वे ॥१४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतो दब्धासोऽअपरीतासऽउद्भिदः । देवा नो यथा सदमिद्वृधेऽअसन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। नः। भद्राः। क्रतवः। यन्तु। विश्वतः। अदब्धासः। अपरीतास इत्यपरिऽइतासः। उद्भिद इत्युत्ऽभिदः। देवाः। नः। यथा। सदम्। इत्। वृधे। असन्। अप्रायुव इत्यप्रऽआयुवः। रक्षितारः। दिवेदिवऽइति दिवेदिवे॥१४॥
विषय - फिर मनुष्यों को किसकी इच्छा करनी चाहिए, इस विषय का उपदेश किया है॥
भाषार्थ -
हे विद्वानो ! जैसे (नः) हमें (विश्वतः) सब ओर से (भद्राः) कल्याणकारी, (अदब्धास:) हिंसा रहित, (अपरीतासः) अन्यों से अव्याप्त (उद्भिदः) दुःखों का भेदन करने वाले (क्रतवः) यज्ञ वा प्रज्ञा=बुद्धि (आ+यन्तु) प्राप्त हों; और जैसे (नः) हमारी (सदम्) सभा में प्राप्त हुए (अप्रायुव:) अनष्ट आयु वाले अर्थात् युवक, (देवाः) पृथिवी आदि के तुल्य विद्वान् (इत्) ही (दिवे दिवे) प्रतिदिन (वृधे) वृद्धि के लिए (रक्षितारः) रक्षक (असन्) हों; वैसा आचरण करो ॥ २५ । १४ ॥
भावार्थ - सब मनुष्य परमेश्वर के विज्ञान से एवं विद्वानों के संग से पुष्कल=पर्याप्त प्रज्ञा को प्राप्त करके, सब ओर से धर्म का आचरण करके सबके रक्षक बनें ॥ २५ । १४ ॥ विनियोग– 'आ नो भद्राः०'महर्षि ने इस मन्त्र का विनियोग स्वस्तिवाचन में संस्कारविधि में किया है
भाष्यसार - मनुष्य किसकी इच्छा करें--सब मनुष्य परमेश्वर के विज्ञान एवं विद्वानों के संग में रहते हुए ऐसी कामना करें--सब ओर से कल्याणकारी, हिंसा रहित, अन्यों से अव्याप्त (स्वतन्त्र), दुःखों का भेदन करने वाले यज्ञ= शुभकर्म वा बुद्धि हमें प्राप्त हो। हमारे घर में प्राप्त हुए युवक विद्वान् लोग प्रतिदिन हमारी वृद्धि के लिए प्रयत्न करें एवं धर्माचरण से हमारे रक्षक बनें॥ २५ । १४ ॥
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