यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 56
व॒यꣳ सो॑म व्र॒ते तव॒ मन॑स्त॒नूषु॒ बिभ्र॑तः। प्र॒जाव॑न्तः सचेमहि॥५६॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम्। सो॒म॒। व्र॒ते। तव॑। मनः॑। त॒नूषु॑। बिभ्र॑तः। प्र॒जाव॑न्त॒ इति॑ प्रजाऽव॑न्तः। स॒चे॒म॒हि॒ ॥५६॥
स्वर रहित मन्त्र
वयँ सोम व्रते तव मनस्तनूषु बिभ्रतः । प्रजावन्तः सचेमहि ॥
स्वर रहित पद पाठ
वयम्। सोम। व्रते। तव। मनः। तनूषु। बिभ्रतः। प्रजावन्त इति प्रजाऽवन्तः। सचेमहि॥५६॥
विषय - अब सोम शब्द से ईश्वर और औषधियों के रसों का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ -
हे (सोम) चराचर जगत् के उत्पत्तिकर्ता जगदीश्वर! आपके (व्रते) सत्यभाषण आदि धर्माचरण में वर्तमान हम लोग (तनूषु) विस्तृत सुख वाले शरीरों में (मनः) अन्तःकरण की अहंकार आदि वृत्ति रूप मन को (बिभ्रतः) धारण और पुष्ट करते हुये तथा (प्रजावन्तः) उत्तम सन्तान और राष्ट्रनायक प्रजा वाले होकर (वयम्) हम लोग सब सुखों से (सचेमहि) समवेत (संयुक्त) रहें। यह मन्त्र का पहला अर्थ है ।
और (तव) इस (सोम) रसों के उत्पादक औषधियों के राजा सोम के (व्रते) सत्य विज्ञान के लिये (तनूषु) विशाल सुख वाले शरीरों में (मनः) अन्तःकरण की अहङ्कार आदि वृत्ति रूप मन को (बिभ्रतः) धारण एवं पुष्ट करते हुये (प्रजावन्तः) उत्तम सन्तान तथा राष्ट्र नायक प्रजा वाले होकर (वयम्) हम लोग सब सुखों से ( सचेमहि) ) समवेत (संयुक्त) रहें। यह मन्त्र का दूसरा अर्थ है ।। ३ । ५६ ।।
भावार्थ -
इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है। ईश्वर की आज्ञा में रहने वाले मनुष्य शारीरिक और आत्मिक सुख को नित्य प्राप्त करते हैं ।
इस प्रकार सोम आदि औषधियों का सेवन करने वाले भी शारीरिक और आत्मिक सुख को प्राप्त करते हैं, दूसरे नहीं ।। ३ । ५६ ।।
प्रमाणार्थ -
(प्रजावन्तः) यहाँ आधिक्य अर्थ में 'मतुप्' प्रत्यय है ॥ ३ । ५६ ।।
भाष्यसार -
१. सोम (ईश्वर)--सोम अर्थात् जगदीश्वर सब चराचर जगत् को उत्पन्न करने वाला (सोम) है। उसके बतलाये व्रत अर्थात् सत्यभाषण आदि धर्मानुष्ठान में एवं उसकी आज्ञा में रह कर, मन अर्थात् अन्तःकरण की अहङ्कारादि वृत्तियों को धारण करके उत्तम सन्तान और उत्तम राष्ट्र वाले होकर शारीरिक और आत्मिक सब सुखों को नित्य प्राप्त करें ।
२. सोम (औषधि रस)--सोम औषधियों का राजा है, जो सत्याचरण में सहायक है। उसके सेवन से शरीर में वर्तमान मन अर्थात् अन्तःकरण को पुष्ट करते हुये उत्तम सन्तान और उत्तम राष्ट्र वाले होकर शरीर और आत्मा सम्बन्धी सब सुखों को प्राप्त करें।
तात्पर्य यह है कि सोम का सेवन करने वालों को ही सब सुख प्राप्त होते हैं, दूसरों को नहीं ॥
३. अलंकार--यहाँ श्लेष अलङ्कार होने से 'सोम' शब्द से ईश्वर और औषधि रस दो अर्थों का ग्रहण किया गया है ।
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