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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 34
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - स्वराट् ब्राह्मी बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    मि॒त्रस्य॑ मा॒ चक्षु॑षेक्षध्व॒मग्न॑यः। सगराः॒ सग॑रा स्थ॒ सग॑रेण॒ नाम्ना॒ रौद्रे॒णानी॑केन पा॒त मा॑ग्नयः पिपृ॒त मा॑ग्नयो गोपा॒यत॑ मा॒ नमो॑ वोऽस्तु॒ मा मा॑ हिꣳसिष्ट॥३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मित्र॒स्य॑। मा॒। चक्षु॑षा। ईक्ष॒ध्व॒म्। अग्न॑यः। स॒ग॒राः। स्थ॒। सग॑रेण। नाम्ना॑ रौद्रे॑ण। अनी॑केन। पा॒त। मा॒। अ॒ग्न॒यः॒। पि॒पृ॒त। मा॒। अग्न॑यः। गो॒पा॒यत॑ मा॒। नमः॑। वः॒। अ॒स्तु॒। मा। मा॒। हिं॒सि॒ष्ट॒ ॥३४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मित्रस्य मा चक्षुषेक्षध्वमग्नयः सगराः सगरा स्थ सगरेण नाम्ना रौद्रेणानीकेन पात माग्नयः पिपृत माग्नयो गोपायत मा नमो वोस्तु मा मा हिँसिष्ट ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मित्रस्य। मा। चक्षुषा। ईक्षध्वम्। अग्नयः। सगराः। स्थ। सगरेण। नाम्ना रौद्रेण। अनीकेन। पात। मा। अग्नयः। पिपृत। मा। अग्नयः। गोपायत मा। नमः। वः। अस्तु। मा। मा। हिंसिष्ट॥३४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 34
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    भाषार्थ -
    हे विद्वान् मनुष्यो! आप (सगराः) अच्छे कामों के लिये अवकाश=समय वाले (अग्नयः) श्रेष्ठ पदार्थों को प्राप्त कराने वाले हो, अतः [मा] मुझे (मित्रस्य) मित्र की (चक्षुषा) दृष्टि से (ईक्षध्वम्) देखो, तथा (सगरा:) विद्यादि उपदेश के लिये अवकाश=समय वाले ही (स्थ)रहो। हे (अग्नयः) ज्ञानवान् विद्वानो! (सगरेण) अवकाश सहित (रौद्रेण) शत्रुओं को रुलाने वाली (नाम्ना) प्रसिद्ध (अनीकेन) सेना से [मा] मेरी (पात) रक्षा करो एवं [पिपृत] विद्यादि गुणों सेकरो। हे [अग्नयः] सभाध्यक्ष आदि! [मा] मेरी (गोपायत) पालना करो [मा] मेरी (मा हिंसिष्ट) हिंसा न करो। इसलिये (व:) तुम्हें मेरा ( नमः) नमस्कार (अस्तु) हो ।। ५ । ३४ ।।

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलंकार है।। जैसे विद्यादान से विद्वान् लोग सब मनुष्यों को सुखी करते हैं वैसे इन विद्वानों को विद्या के निमित्त कार्यों में लगे हुये विद्यार्थी भी सुखी रखें ।। ५ । ३४ ।।

    भाष्यसार - विद्वान् कैसे हैं--विद्वान् पुरुष शुभ कार्यों के लिये अवकाश (समय) रखने वाले,श्रेष्ठ पदार्थों को प्राप्त करने और कराने वाले होते हैं। वे सबको मित्र की दृष्टि से देखते हैं। विद्यादि शुभ गुणों के उपदेश के लिये समय देते हैं, तैयार रहते हैं। ज्ञानी विद्वान् शत्रुओं को रुलाने वाली अपनी प्रसिद्ध सेना से श्रेष्ठ जनों की रक्षा करते हैं, जिज्ञासुओं को विद्यादि शुभ गुणों से भरपूर कर देते हैं। वे सभाध्यक्ष आदि पदों को प्राप्त करके सज्जनों की पालना करते हैं, उनकी हिंसा कभी नहीं करते। जैसे विद्वान् पुरुष विद्यादान से सज्जनों को सुखी करते हैं वैसे अध्येता सज्जन पुरुष भी उनका नमस्कार आदि से सत्कार करते हैं ।। ५ । ३४ ।।

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