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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 133

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 133/ मन्त्र 6
    सूक्त - देवता - कुमारी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    अव॑श्लक्ष्ण॒मिव॑ भ्रंशद॒न्तर्लो॑म॒मति॑ ह्र॒दे। न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑श्लक्ष्ण॒म् । इव । भ्रंशद॒न्तर्लोम॒मति॑ । हृ॒दे ॥ न । वै । कु॒मारि॒ । तत् । तथा॒ । यथा॑ । कुमारि॒ । मन्य॑से ॥१३३.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवश्लक्ष्णमिव भ्रंशदन्तर्लोममति ह्रदे। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अवश्लक्ष्णम् । इव । भ्रंशदन्तर्लोममति । हृदे ॥ न । वै । कुमारि । तत् । तथा । यथा । कुमारि । मन्यसे ॥१३३.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 133; मन्त्र » 6

    Translation -
    As the dirty things are thrown in the pools having inside the hair, dirt etc so the grass-matter falls in the space which is full of hair-like rays. O immature maiden it is not so as you, O maiden …… fancy. Note:—Here I did not interpret the hymn in the contex of talk between an married lady and her husband at the time of consumation. That is too clear.

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