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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 141 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 141/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अग्निस्तापसः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒र्य॒मणं॒ बृह॒स्पति॒मिन्द्रं॒ दाना॑य चोदय । वातं॒ विष्णुं॒ सर॑स्वतीं सवि॒तारं॑ च वा॒जिन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र्य॒मण॑म् । बृह॒स्पति॑म् । इन्द्र॑म् । दाना॑य । चो॒द॒य॒ । वात॑म् । विष्णु॑म् । सर॑स्वतीम् । स॒वि॒तार॑म् । च॒ । वा॒जिन॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्यमणं बृहस्पतिमिन्द्रं दानाय चोदय । वातं विष्णुं सरस्वतीं सवितारं च वाजिनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अर्यमणम् । बृहस्पतिम् । इन्द्रम् । दानाय । चोदय । वातम् । विष्णुम् । सरस्वतीम् । सवितारम् । च । वाजिनम् ॥ १०.१४१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 141; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    [१] (अर्यमणम्) = 'अर्यमेति तमाहुर्यो ददाति' सब कुछ देनेवाले को, (बृहस्पतिम्) = सब वृद्धियों के स्वामी को, (इन्द्रम्) = शक्तिशाली प्रभु को (दानाय चोदय) = दान के लिए प्रेरित कर । अर्थात् इन देवों का तू इस प्रकार आराधन कर कि ये अपनी इन दिव्यताओं को तुझे प्राप्त करायें । तू भी दानशील, वृद्धियों का स्वामी व शक्तिशाली बन पाये। [२] इसी प्रकार (वातम्) = निरन्तर गतिशील को, (विष्णुम्) = व्यापक को, (सरस्वतीम्) = ज्ञानाधिष्ठातृदेवता को, (च) = और (वाजिनम्) = सब शक्तियोंवाले (सवितारम्) = उत्पादक प्रभु को दान के लिये प्रेरित कर । तू भी 'वात' की कृपा से निरन्तर क्रियाशील हो । 'विष्णु' तुझे व्यापकता प्रदान करे । 'सरस्वती' से तेरा जीवन शिक्षित व परिष्कृत हो । और 'सविता' से बल व प्राणशक्ति को प्राप्त करके तू निर्माण के कार्यों में लगनेवाले हों ।

    भावार्थ - भावार्थ - हम दानशील, बुद्धिशील, शक्तिशाली, क्रियामय जीवनवाले, उदार, शिक्षित व शक्ति का सम्पादन करके निर्माण के कार्यों में लगनेवाले हों ।

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