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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 142 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 142/ मन्त्र 3
    ऋषिः - शार्ङ्गाः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒त वा उ॒ परि॑ वृणक्षि॒ बप्स॑द्ब॒होर॑ग्न॒ उल॑पस्य स्वधावः । उ॒त खि॒ल्या उ॒र्वरा॑णां भवन्ति॒ मा ते॑ हे॒तिं तवि॑षीं चुक्रुधाम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । वा॒ । ऊँ॒ इति॑ । परि॑ । वृ॒ण॒क्षि॒ । बप्स॑त् । ब॒होः । अ॒ग्ने॒ । उल॑पस्य । स्व॒धा॒ऽवः॒ । उ॒त । खि॒ल्याः । उ॒र्वरा॑णाम् । भ॒व॒न्ति॒ । मा । ते॒ । हे॒तिम् । तवि॑षीम् । चु॒क्रु॒धा॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत वा उ परि वृणक्षि बप्सद्बहोरग्न उलपस्य स्वधावः । उत खिल्या उर्वराणां भवन्ति मा ते हेतिं तविषीं चुक्रुधाम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । वा । ऊँ इति । परि । वृणक्षि । बप्सत् । बहोः । अग्ने । उलपस्य । स्वधाऽवः । उत । खिल्याः । उर्वराणाम् । भवन्ति । मा । ते । हेतिम् । तविषीम् । चुक्रुधाम ॥ १०.१४२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 142; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    [१] हे (अग्ने) = प्रगतिशील (स्वधावः) = आत्मतत्त्व का धारण करनेवाले जीव ! तू (बहोः उलपस्य) = इन विस्मृत विषयरूप तृणों का (बप्सत्) = भक्षण करता हुआ (उत वा उ) = निश्चय से (परिवृणक्षि) = अपने आत्म प्राप्ति के मार्ग को छोड़ देता है। विषयों में फँसा और आत्म प्राप्ति के मार्ग से विचलित हुआ । [२] (उत) = और इस विषय सेवन के परिणामस्वरूप (उर्वराणाम्) = उपजाऊ भूमियों की (खिल्याः) = ऊसर भूमियाँ भवन्ति हो जाती हैं । अर्थात् इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि सब क्षीणशक्ति हो जाती हैं। इन्द्रियों में अपने-अपने कार्य को करने की शक्ति नहीं रह जाती। मन अतृप्त व अशान्त हो जाता है, बुद्धि की गम्भीरता विनष्ट हो जाती है। [३] हे प्रभो ! हम इस प्रकार विषय सेवन से इस सम्पूर्ण क्षेत्र [= शरीर] को ऊसर बनाकर (ते) = आपके (तविषीम्) = प्रबल (हेतिम्) = वज्र को (मा चुक्रुधाम) = कोपित न कर लें। आपके हम क्रोधपात्र कभी न हों। विषयों से दूर रहकर, शरीर क्षेत्र को खूब उर्वर बनाते हुए हम आपके प्रिय बनें ।

    भावार्थ - भावार्थ-विषयों में फँसने से हम आत्म प्राप्ति के मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं। हमारी शक्तियाँ क्षीण हो जाती हैं और हम प्रभु के प्रिय नहीं रहते।

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