ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 142/ मन्त्र 4
यदु॒द्वतो॑ नि॒वतो॒ यासि॒ बप्स॒त्पृथ॑गेषि प्रग॒र्धिनी॑व॒ सेना॑ । य॒दा ते॒ वातो॑ अनु॒वाति॑ शो॒चिर्वप्ते॑व॒ श्मश्रु॑ वपसि॒ प्र भूम॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । उ॒त्ऽवतः॑ । नि॒ऽवतः॑ । या॒सि॒ । बप्स॑त् । पृथ॑क् । ए॒षि॒ । प्र॒ग॒र्धिनी॑ऽइव । सेना॑ । य॒दा । ते॒ । वातः॑ । अ॒नु॒ऽवाति॑ । शो॒चिः । वप्ता॑ऽइव । श्मश्रु॑ । व॒प॒सि॒ । प्र । भूम॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदुद्वतो निवतो यासि बप्सत्पृथगेषि प्रगर्धिनीव सेना । यदा ते वातो अनुवाति शोचिर्वप्तेव श्मश्रु वपसि प्र भूम ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । उत्ऽवतः । निऽवतः । यासि । बप्सत् । पृथक् । एषि । प्रगर्धिनीऽइव । सेना । यदा । ते । वातः । अनुऽवाति । शोचिः । वप्ताऽइव । श्मश्रु । वपसि । प्र । भूम ॥ १०.१४२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 142; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
विषय - बालों की तरह वासनाओं को काटना
पदार्थ -
[१] (यद्) = जब (बप्सत्) = विषयों का चरण करता हुआ तू (उद्वतः निवतः) = ऊँचे व नीचे लोकों में (यासि) = गति करता है, भिन्न-भिन्न लोकों में जन्म लेता है तो तू (पृथग् एषि) = प्रभु से अलग होकर गति करता है। उसी तरह अलग होकर गति करता है (इव) = जैसे कि (प्रगर्धिनी सेना) = लूटने के लालचवाली फौज सेनापति से अलग होकर लूटने में प्रवृत्त होती है। मनुष्य भी प्रभु से दूर होकर विषयों का भोग करने लगता है। [२] (यदा) = जब (ते) = तेरी (वातः) = [ वा गतौ ] गति (शोचिः अनुवाति) = ज्ञानदीप्ति के अनुसार होती है, जब तेरी क्रियाएँ ज्ञान के अनुसार होने लगती हैं तो तू इन वासनाओं को (भूम) = इस शरीर भूमि में से (प्रवपसि) = इस प्रकार प्रकर्षेण काट डालता है (इव) = जैसे कि (वप्त) = नापित (श्मश्रु) = बालों को काटता है ।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु से दूर होकर इन विषयों में फँसकर ऊँचे-नीचे लोकों में जन्म लेनेवाले बनते हैं। ज्ञानपूर्वक क्रियाओं के होने पर हम वासनाओं को विनष्ट कर पाते हैं।
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