ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 142/ मन्त्र 5
ऋषिः - शार्ङ्गाः
देवता - अग्निः
छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्रत्य॑स्य॒ श्रेण॑यो ददृश्र॒ एकं॑ नि॒यानं॑ ब॒हवो॒ रथा॑सः । बा॒हू यद॑ग्ने अनु॒मर्मृ॑जानो॒ न्य॑ङ्ङुत्ता॒नाम॒न्वेषि॒ भूमि॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । अ॒स्य॒ । श्रेण॑यः । द॒दृ॒श्रे॒ । एक॑म् । नि॒ऽयान॑म् । ब॒हवः॑ । रथा॑सः । बा॒हू इति॑ । यत् । अ॒ग्ने॒ । अ॒नु॒ऽमर्मृ॑जानः । न्य॑ङ् । उ॒त्ता॒नाम् । अ॒नु॒ऽएषि॑ । भूमि॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रत्यस्य श्रेणयो ददृश्र एकं नियानं बहवो रथासः । बाहू यदग्ने अनुमर्मृजानो न्यङ्ङुत्तानामन्वेषि भूमिम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्रति । अस्य । श्रेणयः । ददृश्रे । एकम् । निऽयानम् । बहवः । रथासः । बाहू इति । यत् । अग्ने । अनुऽमर्मृजानः । न्यङ् । उत्तानाम् । अनुऽएषि । भूमिम् ॥ १०.१४२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 142; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
विषय - नीचे से ऊपर
पदार्थ -
[१] गत मन्त्र के अनुसार वासनाओं को काटकर हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! (यद्) = जब (बाहू) = [बाह्य प्रयत्ने] इहलोक व परलोक सम्बन्धी प्रयत्नों को (अनुमर्मृजान:) = क्रमशः शुद्ध करता हुआ (न्यड्) = नीचे से (उत्तानाम्) = उत्कृष्ट (भूमिम्) = भूमि को (अन्वेषि) = तू प्राप्त होता है । जितना-जितना प्रयत्नों का शोधन, उतना उतना उत्तम भूमि का आक्रमण [ उतना उतना उत्त्थान] । [२] उस समय इस व्यक्ति के (बहवः रथासः) = ये स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर रूप रथ (एकं नियानम्) = उस अद्भुत [ cowpen] बाड़े में, प्रभु में स्थित होते हैं और (अस्य) = इसकी (श्रेणयः) = भूतपञ्चक, प्राणपञ्चक, कर्मेन्द्रियपञ्चक, ज्ञानेन्द्रियपञ्चक व अन्तःकरणपञ्चक [हृदय, मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार] आदि श्रेणियाँ (प्रति ददृशे) = एक-एक करके देखी जाती हैं। ये प्रत्येक श्रेणि का ध्यान करता हुआ उन्हें मलिन व क्षीण शक्ति नहीं होने देता।
भावार्थ - भावार्थ - अपने कर्मों या शोधन करते हुए हम ऊपर और ऊपर उठें। हम अपने रथों का बाड़ा प्रभु को ही बनायें, अर्थात् इन शरीरों को प्रभु में स्थापित करने का प्रयत्न करें । अन्तःकरण आदि एक-एक अंग का ध्यान करें। उन्हें मलिन न होने दें।
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